NCERT Solutions for Class 12 Sanskrit Chapter 7 दारिद्र्ये दुर्लभं सत्त्वम् (दरिद्रता में मनोबल का होना दुर्लभ है)
पाठपरिचयः सारांशः च
प्रस्तावना
प्रस्तुतः पाठः ‘चारुदत्तम्’ नाटकस्य प्रथमाङ्कात् सङ्कलितः। नाटकस्य नायकः चारुदत्तः अस्ति। सः उज्जयिनीवासी, रूपवान्, गुणवान् सङ्गीतविद्यायाः प्रेमी, परोपकारपरायणः च अस्ति।
चारुदत्तः पूर्वं धनवान् आसीत् परं सः उदारतावशदानकारणात् च शीघ्रं दरिद्रो जातः। दरिद्रावस्थायां मित्राणाम् उपेक्षायाः कारणात् कटुः अनुभवः भवति। किन्तु दैन्येऽपि तस्य मनः भ्रष्टं न भवति। मैत्रेयः अस्य मित्रम्। सः विनोदप्रियः विपत्तौ अपि तस्य विश्वासपात्रम्।
संस्कृत साहित्य में महाकवि कालिदास से भी पहले एक नाटककार हुए हैं। उनका उल्लेख कालिदास ने भी अपने एक नाटक में किया है। उनका नाम है-महाकवि भास। उनके तेरह नाटक मिलते हैं। उन नाटकों में बड़ी विविधता है। कथानक बड़े रोचक हैं। भाषा बहुत चुस्त है। नायक आदर्श चरित्र वाले हैं। इन नाटकों में एक का नाम है ‘चारुदत्तम्’। ‘चारुदत्तम्’ नाटक का नायक चारुदत्त है। पहले वह बड़ा धनवान् था। अपनी दानशीलता तथा उदारता के कारण वह शीघ्र ही दरिद्र हो जाता है। दरिद्रावस्था में उसके मित्र उसके पास नहीं फटकते, इस बात का उसको बड़ा कटु अनुभव होता है। ऐसा होने पर भी उसका मन डाँवाँडोल नहीं होता। दरिद्रता में भी उसका मन पूर्ववत् दृढ़ एवं उदार बना रहता है। यही दिखाने के लिए इस नाट्यांश को यहाँ प्रस्तुत किया गया है।
पाठ-संदर्भ
प्रस्तुत नाट्यांश का सङ्कलन महाकवि भासकृत ‘चारुदत्तम्’ नाम के नाटक के प्रथम अङ्क से किया गया है। कुछ भाग प्रस्तावना का भी है जिसमें सूत्रधार व नटी परस्पर संवाद द्वारा हमें चारुदत्त के मित्र आर्य मैत्रेय से परिचित कराते हैं। वह अपने मित्र चारुदत्त की पूजा के निमित्त कुछ पुष्प एवं वस्त्र लेकर आता है।
पाठ-सार
इस लघु नाट्यांश में भी तीन दृश्य हैं। प्रथम दृश्य में सूत्रधार अपने प्रातराश (नाश्ते) के हेतु नटी से पूछता है। विनोद करती हुई नटी कहती है कि प्रातराश की सामग्री घी, गुड़, दही, चावल घर पर नहीं हैं, उन्हें बाजार से लाना है। बाद में वह बताती है कि आज उसका व्रत है तथा किसी योग्य को निमन्त्रित भी करना है। सूत्रधार देखता है कि सामने से आर्य चारुदत्त के मित्र आर्य मैत्रेय पधार रहे हैं अतः वह उन्हीं को निमन्त्रित करने का विचार कर उन्हें निमन्त्रित कर देता है। नेपथ्य से ही मैत्रेय कहता है कि किसी दरिद्र व्यक्ति को निमन्त्रित कर लें। वह दरिद्र नहीं है
दूसरे दृश्य के प्रारंभ में विदूषक अपने-आप से ही बात करता है। यह उसका ‘आकाशभाषित’ है। वह सुनता है कि जैसे कोई कह रहा है कि भरपूर भोजन खाने को मिलेगा। इस पर वह कहता है कि वह दूसरे कार्य में व्यस्त है। वह सोचता है कि क्या उसे भी दूसरों के निमन्त्रण की इच्छा रहती है। जो आर्य चारुदत्त के घर में गले तक भरपूर भोजन करके अपने दिन व्यतीत करता था, वही अब घर-घर जाकर, चारुदत्त की दरिद्रता के कारण कबूतरों की तरह दूसरी जगह भोजन करता है। वह कहीं और भोजन करके अब चारुदत्त के घर जा रहा है। ऐसी अवस्था में भी वह कहता है कि मैं सन्तुष्ट हूँ। मैं चारुदत्त के लिए पुष्प तथा अन्तरीय वस्त्र लेकर आया हूँ। चारुदत्त को सामने से आते देखता है तथा वह उनके पास जाता है।
तीसरा दृश्य उस नाट्यांश का प्राण है। इसमें चारुदत्त तथा विदूषक का संवाद है। चारुदत्त दरिद्रता को प्राणवान् मरण (जीवित मृत्यु) ही मानता है। विदूषक उसे सान्त्वना देता है कि दरिद्र होते हुए भी आपका दरिद्र भाव दानशीलता के कारण रमणीय (सुन्दर) है। चारुदत्त कहता है कि उसे नष्ट हुई लक्ष्मी की चिन्ता नहीं है। गुणों के रसिक पुरुष की विपत्ति मुझे अत्यन्त दारुण तथा असहनीय इसलिए प्रतीत होती है कि दुःखों का अनुभव कर चुकने के बाद तो सुख की अनुभूति आनन्दमय होती है किन्तु जो उसके विपरीत पहले सुख भोगता है और बाद में दु:ख, उसे तो देह में स्थित होते हुए भी मरे हुए के समान जीवनयापन करना पड़ता है। विदूषक कहता है कि आप धन-सम्पत्तियों की चिन्ता क्यों कर रहे हैं।
इस पर चारुदत्त का कथन है कि हे मित्र! वास्तव में मुझे धन के नष्ट हो जाने की विशेष चिन्ता नहीं है क्योंकि भाग्य के बदलते ही धन तो फिर से प्राप्त हो जानेवाला है। मुझे तो इस बात का विशेष दु:ख है कि लक्ष्मी के नष्ट हो जाने पर मेरे बन्धुगणों की प्रेमभावना मेरे प्रति अत्यन्त क्षीण (कम) हो गई है। दरिद्रता के कारण वैररहित मित्र भी उसके विपरीत हो जाते हैं तथा आपत्तियाँ बढ़ जाती हैं। दूसरों के किए पापकर्म भी उसके द्वारा किए गए समझे जाने लगते हैं। (मृच्छकटिक नाटक के बीच में राजा का साला शकार किसी स्त्री का गला घोटता है तथा उसके गहने चुराता है, उसका आरोप चारुदत्त पर मढ़ दिया जाता है।) हे मित्र! और भी सुनो। मैं सन्ताप किसलिए करूँगा? क्या मैं निर्धन हूँ, जिस मेरे पूर्व वैभव (पहले वाली सम्पत्ति के कारण) के अनुकूल वश में रहनेवाली मेरी धर्मपत्नी है और दुःख-सुख में समान रहनेवाले आप मेरे मित्र हैं तथा मेरी शक्ति भी जो निर्धनों के लिए दुर्लभ है वह भी नष्ट नहीं हुई है।
उद्देश्य-इस नाट्यांश का शीर्षक जैसा है उसके अनुसार ऐसा गुण-स्वभाव हमें धारण करना चाहिए कि दरिद्रता में भी हम अपने मनोबल को कम न होने दें।
मूलपाठः, अन्वयः, शब्दार्थः, सरलार्थश्च
1. ( नान्द्यन्ते ततः प्रविशति सूत्रधारः)
सूत्रधारः – किन्नु खलु अद्य प्रत्यूष एव गेहान्निष्क्रान्तस्य बुभुक्षया पुष्करपत्रपतितजलबिन्दू इव चञ्चलायेते इव मेऽक्षिणी। यावद् गेहं गत्त्वा जानामि किन्नु खलु संविधा विहिता न वेति। (परिक्रम्य) एतद् अस्माकं गृहम्। यावत् आर्यां शब्दापयामि। आर्य इतस्तावत्।
नटी – (प्रविश्य) आर्य! इयमस्मि। आर्य दिष्ट्या खलु आगतोऽसि।
सूत्रधारः – आर्ये! किम् अस्त्यस्माकं गेहे काऽपि प्रातराशः।
नटी – अस्ति, घृतं गुडो दधि तण्डुलाश्च सर्वमस्ति।
सूत्रधारः – चिरं जीव, एवं शोभनानां भोजनानां दात्री भव। आर्ये! किमेतत् सर्वम् अस्माकं गेहेऽस्ति।
नटी – नहि नहि, अन्तरापणे।
सूत्रधारः – (सरोषम्) आः अनार्ये! एवं ते आशा छिद्यताम्। अहं पर्वताद् दूरमारोप्य पातितोऽस्मि। नटी – मा बिभीहि, मा बिभीहि। मुहूर्तकं प्रतिपालयतु आर्यः। सर्वं सज्जं भविष्यति। आर्य! अद्य ममोपवासः
अस्ति। यदि आर्यस्यानुग्रहः स्यात् तर्हि अस्मादृशयोग्यं कञ्चिद् जनं निमन्त्रयितुम् इच्छामि। सूत्रधारः – (परिक्रम्य) कुत्र नु खलु दरिद्रं योग्यं जनं लभेय। (विलोक्य) एष आर्यचारुदत्तस्य वयस्यः आर्यमैत्रेयः इत एवागच्छति। यावद् उपनिमन्त्रयामि। (परिक्रम्य) आर्य! निमन्त्रितोऽसि (निष्क्रान्तः)
(नेपथ्ये)
अन्यमन्यं निमन्त्रयतु भवान्। नाहं तावद् दरिद्रः।
शब्दार्थः, पर्यायवाचिशब्दाः टिप्पण्यश्चः- नाद्यन्ते- नान्दी + अन्ते-नान्द्याः, अन्ते, नान्दी के अन्त में। नान्दी पारिभाषिक शब्द है। नाटक विषयक पारिभाषिक शब्दों का परिचय। ‘राष्ट्रचिन्ता गरीयसी’ पाठ के अन्त में दिया गया है। तदनुसार ‘नाटकस्य प्रारम्भे विघ्नविनाशाय स्तुतिः’- अर्थात् नाटक के आरम्भ में विघ्नों को दूर करने के लिए की गई स्तुति को नान्दी कहते हैं। साहित्यदर्पण (आचार्य विश्वनाथकृत) में लिखा है
आशीर्वचनसंयुक्ता स्तुतिर्यस्मात् प्रयुज्यते।
देवविद्वजननृपादीनां तस्मान्नान्दीति संज्ञिता॥
अर्थात् देवता, विप्र अथवा राजा आदि के आशीर्वाद से युक्त स्तुति को ‘नान्दी’ कहा जाता है जिसमें देवतादि प्रसन्न (आनन्दित) होते हैं वह नान्दी है। प्रविशति -प्राविश्, लट्, प्रथम पुरुषः, एकवचनम्, प्रवेशं करोति। सूत्रधारः -यह भी पारिभाषिक शब्द है, सूत्रं धारयति इति सूत्रधारः, व्यवस्थापकः। सूत्र का अभिप्राय है, नाटक का समस्तकार्यभार-प्रयोगानुष्ठानम्, प्रयोगस्य, नाटकस्य अनुष्ठानम् कार्यभारः, कार्यजातम् कार्यभार में ‘बीज’ नामक कथावस्तु की अर्थ-प्रकृति को भी सम्मिलित किया गया है। सूत्रधार नाटक की कथावस्तु के बीज की स्थापना भी करता है तथा रंगमञ्च के देवताओं की पूजा को भी वहीं करवाता है।
अतः सूत्रधार के विषय में कहा गया है-‘नाट्यस्य यदनुष्ठानं तत्सूत्रं स्यात् सबीजकम् रंगदैवतपूजाकृत् सूत्रधार इति स्मृतः। मञ्चसञ्चालनस्य सर्वम् उत्तरदायित्वम् सूत्रधारस्य एव भवति। मंच-संचालन का पूरा उत्तरदायित्व सूत्रधार का ही होता है। प्रस्तुत पाठ महाकवि भासकृत ‘चारुदत्तम्’ की प्रस्तावना से लिया गया है। प्रस्तावना में सूत्रधार नटी अथवा आस पास वालों के साथ वार्तालाप करता है तथा नाटक के बीज की स्थापना करता है। गेहं- गृह, घर। संविधा – भोजनव्यवस्था। विहिता -वि + √धा + क्त + टाप, कृता, की गई। दिष्ट्या -भाग्येन, भाग्य से। तण्डुला:- अक्षताः, चावल। अन्तरापणे, विपणे, बाज़ार में। पर्वतात् दूरमारोप्य – अत्यन्त मनोरथात् स्थानात् चेति वा, पर्वत से भी ऊँचे उठाकर। माबिभीहि -√भी, लोट। भयं मा कुरु, डरो मत। छिद्यताम् – छिद्, विधिलिङ्, प्रथम पुरुष, एकवचनम्। नष्टा भवेत् नष्ट हो जावे। पुष्करे -कमलपत्रे पतिते जलबिन्दु इव चञ्चले, कमल के पत्ते पर पड़ी पानी की बूंदों के समान चंचल।
सरलार्थ –
(नान्दी हो जाने के पश्चात् सूत्रधार प्रवेश करता है।)
सूत्रधार – पता नहीं क्यों आज प्रातःकाल ही घर से निकले हुए भूख के कारण मेरी दोनों आँखें कमल के पत्ते पर गिरी हुई पानी की दो बूंदों के समान चंचल हो रही हैं। अतः घर जाकर पता करता हूँ कि कोई व्यवस्था है या नहीं। (घूमकर) यह हमारा घर है। तो मैं आर्या (गृहस्वामिनी) को पुकारता हूँ। हे आर्ये! इधर तो आइए।
नटी – (प्रवेश करके) पतिदेव (आर्य)! मैं आ गई हूँ। आर्य, प्रसन्नता है कि आप आ गये हैं।
सूत्रधार – हे देवि (आर्ये)! क्या हमारे घर में कुछ जलपान है?
नटी – घी, गुड़, दही तथा चावल सब है।
सूत्रधार – दीर्घकाल तक जिओ (चिरंजीव)! इसी तरह सुन्दर भोजन देनेवाली बनो। हे देवि (आर्ये)! क्या यह सब हमारे घर में है?
नटी – नहीं, नहीं, बाज़ार में।
सूत्रधार – (क्रोधपूर्वक) हाय दुष्टा (अनार्या)! इसी प्रकार तेरी आशा भी भंग हो जाए। मैं दूर तक चढ़ाकर पर्वत से गिरा दिया गया हूँ।
नटी – भय मत करो, डरो मत। स्वामी क्षण भर प्रतीक्षा करो। सब तैयार हो जाएगा। स्वामिन्! आज मेरा व्रत है। यदि स्वामी (आर्य) की कृपा हो तो हमारे योग्य किसी व्यक्ति को आमन्त्रित करना चाहती हैं।
सूत्रधार – (घूमकर)-कहाँ से मैं दरिद्र व्यक्ति को प्राप्त करूँ? (देखकर) यह आर्य चारुदत्त का मित्र आर्य मैत्रेय इधर ही आ रहा है। तो इसे ही पास जाकर निमन्त्रित करता हूँ। (घूमकर) आर्य! तुम्हें निमन्त्रण है। (निकल जाता है।) (नेपथ्य में) आप किसी और को निमन्त्रित कर लें। मैं उतना दरिद्र नहीं हूँ।
2. (ततः प्रविशति विदूषकः)
विदूषकः- ननु भणामि, अन्यमन्यं निमन्त्रयतु भवान्। किं भणसि-“सम्पन्नम् अशनम् अशितव्यं भविष्यतीति।” भणामि, कार्यान्तरे व्यस्तः। अथवा मयापि मैत्रेयेण परस्य आमन्त्रणकानि अभिलषणीयानि। योऽहं तत्रभवतः चारुदत्तस्य गेहेऽहोरात्रम् आकण्ठमात्रम् अशित्वा दिवसान् अनयमः स एव इदानीमहं तत्रभवतः चारुदत्तस्य दरिद्रतया पारावतैः समम् अन्यत्र भुक्त्वा तस्यावासमेव गच्छामि।
पुनरपि सन्तुष्टोऽहम्। तदैव तत्रभवतः चारुदत्तस्य देवकार्यकारणात् गृहीतानि सुमनसः अन्तरीयवासः च। (परिक्रम्यावलोक्य)
एष तत्रभवान् चारुदत्तः यथाविभवं गृहदैवतानि अर्चयन् इत एवावगच्छति। यावद् एनमुपसर्पामि।
शब्दार्थः, पर्यायवाचिशब्दाः टिप्पण्यश्च:- अशनम्- अश् + ल्युट, भोजनम्। आशितव्यम् – अश् + तव्यत्, भोजनं करणीयम्। आशित्वा- अश् + क्त्वा, भोजनं कृत्वा भोजन करके। अहोरात्रम्- दिवा च निशा च, दिन और रात। पारावतैः- कपोतैः, कबूतरों से। सत्त्वम् – सत्त्वगुणयुक्तं मनः, सत्त्वशाली मन। भणामि – भण् + लट्, उत्तम् पुरुषः, एकवचनम्। वदामि, बोलता हूँ। उपसमि – उप + √सृप्, लट्, उत्तम पुरुषः, एकवचनम् समीपं गच्छामि, पास जाता हूँ। यथाविभवम्- ऐश्वर्यानुसारम्, धन की सामर्थ्य के अनुसार।
सरलार्थ –
(उसके बाद विदूषक प्रवेश करता है)
विदूषक – निश्चय ही मैं कहता हूँ, “किसी और को आप निमन्त्रण देवें। क्या कहते हो? समृद्ध भोजन खाने को मिलेगा। मैं कहता हूँ, “मैं दूसरे काम में व्यस्त (संलग्न) हूँ। अथवा मुझे मैत्रक को भी दूसरों के निमन्त्रणों की इच्छा करनी चाहिए। मैं तो आदरणीय श्रीमान् चारुदत्त के घर में दिन-रात गले तक भरपूर भोजन करके दिवस बिताया करता था। वही मैं अब उन आदरणीय चारुदत्त की दरिद्रता के द्वारा कबूतरों के समान, दूसरी जगह खाकर उनके आवास की ओर जा रहा हूँ। फिर भी मैं सन्तुष्ट हूँ। तभी आदरणीय चारुदत्त की देवपूजा के कार्य के कारण से मेरे द्वारा फूल और चोला लाया गया है।”
(घूमकर, देखकर)
ये आदरणीय चारुदत्त अपनी सम्पदा के अनुसार गृहदेवताओं का पूजन करते हुए इधर ही आ रहे हैं।
तो मैं इनके पास जाता हूँ।
3. (ततः प्रविशति चारुदत्तो, विदूषकः चङ्गेरिकाहस्ता चेटी च)
चारुदत्तः – (दीर्घ निःश्वस्य) भोः दारिद्र्यं खलु नाम मनस्विनः पुरुषस्य सोच्छ्वासं मरणम्।
विदूषकः – अलम् इदानीं भवान् अतिमात्रं सन्तप्तुम्। दानेन विपन्नविभवस्य, बहुलपक्षचन्द्रस्य ज्योत्स्नापरिक्षय इव भवतः रमणीयोऽयं दरिद्रभावः।
चारुदत्तः – न खल्वहं नष्टां श्रियम् अनुशोचामि। गुणरसज्ञस्य तु पुरुषस्य व्यसनं दारुणतरं मां प्रतिभाति। कुतः?
सुखं हि दुःखान्यनुभूय शोभते
यथान्धकारादिव दीपदर्शनम्।
सुखात्तु यो याति दशां दरिद्रतां
स्थितः शरीरेण मृतः स जीवति।।1।।
अन्वयः – यथा अन्धकारात् दीपदर्शनम् शोभते
इव दुःखानि अनुभूय सुखम् हि शोभते।
तु यः सुखात् दरिद्रतां दशां याति,
सः शरीरेण स्थितः मृतः जीवति।
शब्दार्थ: – पर्यायवाचिशब्दाः टिप्पणयश्चः- चङ्गेरिकाहस्ता-चङ्गेरिका हस्ते यस्याः सा, जिसके हाथ में फूल रखने की डलिया हो वह (सेविका, चेटी) चङ्गेरिका – पुष्पाधानपात्तविशेषयुक्त, वह टोकरी जो पूजा के फूल रखने के लिए बनाई जाती है। मनस्विनः – उच्चमनसः, ऊँचे मन वाले के। सोच्छ्वासम्- उच्छ्वासेन सह उच्छ्वास-युक्तम्, लम्बी साँस (आहों) से युक्त। सन्तप्तुम्- सम् + √तप् + तुमुन्, दुःखीभवितुम्, सन्ताप करने से। अलम्- अव्ययः, निषेधार्थे, बस करें। बहुपक्षचन्द्रस्य- कृष्णपक्षस्य चन्द्रस्य, षष्ठी तत्पुरुषः। ज्योत्स्नापरिक्षयः- ज्योत्स्नायाः परिक्षयः, चन्द्रकलायाः क्षय, चन्द्रमा की कला के क्षय के। श्रियम्- श्री, द्वितीया विभक्तिः, एकवचनम् सम्पदम्-सम्पत्ति को। गुणरसज्ञस्य- गुणः च रसः च इति तस्य गुणरसौ तौ जानाति गुणरसज्ञः तस्य, अनुभूत विभवफल सारस्य, योग्यता आदि गुणों एवं करुणा आदि रसों के अनुभवी सहृदय पुरुष की
सरलार्थ –
(उसके बाद चारुदत्त, विदूषक और हाथ में चङ्गेरी लिए चेटी प्रवेश करती है।)
चारुदत्त – (गहरी लम्बी साँस लेकर) अरे, मनस्वी (मननशील) पुरुष के लिए निश्चय ही दरिद्रता आहों से भरी हुई मृत्यु है।
विदूषक – अब आप बहुत अधिक सन्ताप न करें।
दान करने के कारण धन को नष्ट करनेवाले आपकी यह दरिद्रता कृष्ण पक्ष के चन्द्रमा की चाँदनी की क्षीणता के समान सुन्दर है। (दूज का चाँद अत्यन्त रमणीय होता है, चन्द्रमा प्रत्येक कला का दान करता हुआ अन्त में अत्यन्त क्षीण होता है तथा अमावस्या के बाद जब वह दिखाई देता है तो लोग उसकी पूजा करते हैं।)
चारुदत्त – निश्चित ही मैं लक्ष्मी के नष्ट हो जाने का शोक नहीं करता। गुणों के रसिक पुरुष की विपत्ति मुझे
अत्यन्त दारुण और असहनीय प्रतीत होती है। क्योंकि –
दुःखों का अनुभव कर चुकने के पश्चात् ही सुख का अनुभव उसी प्रकार आनन्दमय लगता है जिस प्रकार अन्धेरे के बाद दीपक का प्रकाश अच्छा लगता है। (किन्तु) जो व्यक्ति सुख को भोगकर दुःख
की अवस्था को प्राप्त करता है, वह देह में स्थित होते हुए भी मरे के समान जीवनयापन करता है।
4. विदूषकः – किं भवान् अर्थविभवं चिन्तयति!
चारुदत्त – सखे! ‘दानं श्रेयस्करम्’ इति प्रत्ययादेव ममार्थाः क्षीणाः जाताः। अतः
सत्यं न मे धनविनाशगता विचिन्ता
भाग्यक्रमेण हि धनानि पुनर्भवन्ति।
एतत्तु मां दहति नष्टधनश्रियो मे
यत् सौहृदानि सुजने शिथिलीभवन्ति।।2।।
अपि च –
निर्वैरा विमुखीभवन्ति सुहृदः स्फीता भवन्त्यापदः।
पापं कर्म च यत् परैरपि कृत। तत्तस्य सम्भाव्यते॥3॥
अन्वयः (1) – सत्यम् [एतत् यत्] धनविनाशगता विचिन्ता मे न अस्ति, हि धनानि भाग्यक्रमेण पुनः भवन्ति। तु एतत् मां दहति यत् नष्टधनश्रियः मे सौहृदानि सुजने शिथिली भवन्ति।।
अन्वयः (2) – निर्वैराः सुहृदः विमुखीभवन्ति, आपदः स्फीताः भवन्ति, पापं कर्म च यत् परैः अपि कृतम् तत् तस्य सम्भाव्यते।
शब्दार्थ: – पर्यायवाचिशब्दाः टिप्पण्यश्च:- अर्थविभवम्-अर्थानां विभवः, तम् दारिद्र्यम्, दरिद्रता को, विपत्ति को। सौहृदानि-कुटुम्बानां मैत्री, पारिवारिक मैत्रीभाव। सुजने-सज्जने, सज्जन व्यक्ति में (भी)। सामान्यजनैः-साधारण जन के द्वारा। प्रत्ययात्-विश्वासात्, विश्वास के कारण। शत्रुभिः-शत्रुओं के द्वारा। नष्टधनश्रियः-नष्टा धनश्रीः यस्य एव भूतस्य। नष्टधनस्य, धन नष्ट हुए की।
भावार्थ: – धनस्य विनाशस्य चिन्ता चारुदत्तस्य न अस्ति। यदा पुनः भाग्योदयः भविष्यति तदा धनं पुनर्भविष्यति। किन्तु । धनहीनस्य मित्राणां प्रेमभावं शिथिलं दृष्ट्वा चारुदत्तस्य हृदयं दग्धं भवति (सन्तप्यते)। मित्राणि पराङ्मुखानि भवन्ति। विपदः वर्धन्ते (परेषां पापानि तस्योपरि उत्पतन्ति इति महत् चिन्ताकारणम् अस्ति।
सरलार्थ –
विदूषक – आप धन-सम्पत्तियों का चिन्तन ही किसलिए करते हैं? (अथवा क्या आप धन-सम्पत्तियों की चिन्ता करते हैं?
चारुदत्त – मित्र! ‘दान देना कल्याणकारक होता है’ इस पर विश्वास करने के कारण ही मेरे सब धन नष्ट हो गए हैं। अतः यह सत्य (वास्तविकता) है कि जो धन समाप्त हो गए हैं, उनकी मुझे कोई चिन्ता नहीं है। भाग्य के परिवर्तन क्रम से निश्चय ही धन पुनः पैदा हो जाते हैं। किन्तु यह बात मुझको जला रही है कि धन तथा श्री (लक्ष्मी, शोभा) के नष्ट होने से मेरे मित्रों के प्रेमभाव मुझ सज्जन के प्रति मन्द पड़ रहे हैं। और भी –
(निर्धनता के कारण) शत्रुता से रहित मित्र मुझसे पराङ्मुख हो रहे हैं। मेरी विपत्तियाँ बढ़ रही हैं तथा दूसरों के द्वारा किया गया पापकर्म भी उसका (जिसने. उसे नहीं किया) ही समझ लिया जाता है।
5. विदूषकः – वसन्ते यथा शरस्तम्बस्य अङ्कुराद् अङ्कुराः निःसरन्ति तथैव धनविनाशदुःखस्य पुनः पुनः चिन्त्यमानस्य नानाविधाः चिन्ताकुराः प्रादुर्भवन्ति। तदलं भवतः सन्तापेन।
चारुदत्त – वयस्य! किमर्थं सन्तापं करिष्ये। यस्य मम –
विभवानुवशा भार्या समदुःखसुखो भवान्।
सत्त्वं च न परिभ्रष्टं यद् दरिद्रेषु दुर्लभम् ॥4॥
अन्वयः – भार्या विभव-अनुवशा (अस्ति) भवान् समदुःखसुखः (अस्ति), (तत्) सत्त्वं च परिभ्रष्टं न (अस्ति), यत् दरिद्रेषु दुर्लभम् अस्ति।
शब्दार्थ: – पर्यायवाचिशब्दाः टिप्पण्यश्चः- शरस्तम्बस्य-तृणसमूहस्य, विशिष्टतृणाणाम्-सरकण्डों के। विभवानुवशा-(वि०) (स्त्री०) विभववशात् अनुवशा, तत्पुरुषसमासः। धनवशात् अनुकूलकार्यकारिणी (भार्या)-विपुल धन के कारण सदा अनुकूल रहनेवाली स्त्री। समदुःखसुखः-दु:खं च सुखं च, द्वन्द्व समासः, सुखदुःखयोः समान भावः यस्य सः, दुःख-सुख में समान भाव रखनेवाला। समे दुःखसुखे यस्य सः। सत्त्वम् – (नपुं०) मनः, (सत्त्वगुणयुक्तं) सत्त्वशाली मन। परिभ्रष्टम्-विचलितम्, पथभ्रष्ट हुआ।
भावार्थ-वही मनुष्य दरिद्रता की अवस्था में दु:खी होता है जिसका मनोबल नष्ट हो जाता है, जिसकी धर्मपत्नी उसके अनुकूल नहीं रहती और जिसके पास दुःख-सुख में समान व्यवहार करनेवाला कोई मित्र नहीं होता।
सः जनः एव सन्तापं करोति यस्य धर्मपत्नी अनुकूला नास्ति यस्य सुखदुःखसमं मित्रं नास्ति यस्य च मनः निर्बलं भवति।
सरलार्थ –
विदूषक – ठीक वैसे ही जैसे वसन्त में सरकण्डे के अंकुर से नए-नए अंकुर निकलते रहते हैं। वैभव के कारण नष्ट हुए दु:ख के विषय में चिन्ता करते रहने वाले मनुष्य के मन में चिन्ता के नाना प्रकार के अंकुर उत्पन्न होते रहते हैं। अतः आप सन्ताप न करें।
चारुदत्त – मित्र! मैं किसलिए सन्ताप करूँगा। जिसकी, मेरी पूर्व वैभव के अनुसार ही वश में रहनेवाली धर्मपत्नी है और दुःख-सुख में समान रहनेवाले आप हैं, तथा जिसका मनोबल भी, जो दरिद्रों के पास दुर्लभ होता है, नष्ट नहीं हुआ है, वह मैं सन्ताप किस कारण से करूँगा।
अनुप्रयोगः
प्रश्न: 1.
एतानि पदानि उच्चैः उच्चरत तदनुसारं चाभिनयं कुरुत –
प्रविश्य, परिक्रम्यावलोक्य, चिरंजीव, सरोषम्, दीर्घ निःश्वस्य, निष्क्रान्तः
उत्तरः
प्रविश्य = मंच पर प्रवेश करने का अभिनय करें।
परिक्रम्यावलोक्य = मंच पर चारों ओर घूमने तथा किसी को देखने का अभिनय करें।
चिरंजीव = मंच पर किसी को दीर्घायु का आशीर्वाद दें।
सरोषम् = क्रोधपूर्वक वार्तालाप का अभिनय करें।
दीर्घ निःश्वस्य = गहरी लम्बी आह भरने का अभिनय करें।
निष्क्रान्तः = मंच से जाने का अभिनय करें।
प्रश्न: 2.
समानार्थकपदानां मेलनं क्रियताम्’अ’
उत्तरः
प्रश्न: 3.
विशेषण-विशेष्यमेलनं क्रियताम्
उत्तरः
प्रश्न: 4.
सन्धिः क्रियताम् परिवर्तनं च निर्दिशत
उत्तरः
प्रश्नः 5.
अधः प्रदत्तविग्रहपदानां समस्तपदानि पाठादेव चित्वा लिखत
(i) पुष्करस्य पत्रे पतितौ जलस्य बिन्दू इव = ……………………..
(ii) दीपस्य दर्शनम् = ……………………..
(iii) ज्योत्स्नायाः परिक्षयः = ……………………..
(iv) गृहस्य दैवतानि = ……………………..
(v) रोषेण सह = ……………………..
(vi) नष्टा धनश्रीः यस्य एवं भूतस्य = ……………………..
(vii) अहः च रात्रिः च तयोः समाहारः = ……………………..
उत्तरः
(i) पुष्करस्य पत्रे पतितौ जलस्य बिन्दू इव = पुष्करपत्रपतितजलबिन्दू इव
(ii) दीपस्य दर्शनम् = दीपदर्शनम्
(iii) ज्योत्स्नायाः परिक्षयः = ज्योत्स्नापरिक्षयः
(iv) गृहस्य दैवतानि = गृहदैवतानि
(v) रोषेण सह = सरोषम्
(vi) नष्टा धनश्रीः यस्य एवं भूतस्य = नष्टधनश्रियस्य
(vii) अहः च रात्रिः च तयोः समाहारः = अहोरात्रम्
प्रश्नः 6.
प्रकृति-प्रत्यययोगेन पदेन वाक्यपूर्तिं कुरुत
(क) आर्य! दिष्ट्या खलु (आ + गम् + क्त)……………असि।
(ख) सम्पन्नम् अशनम् (अश् + तव्यत्)………… ।
(ग) भवतः (रम् + अनीयर)………………… दरिद्रभावः।
(घ) (अर्च् + शतृ) ………………….. चारुदत्तः गृहदैवतानि इत एव आगच्छति।
(ङ) सुखात् परं (दरिद्र + तल्) ………………….. दुखदा भवति।
(च) अहं गृहं (प्र + विश् + ल्यप्) ………………….. जानामि भोज्य-व्यवस्थाम्।
उत्तरः
(क) आर्य! दिष्ट्या खलु आगतः असि।
(ख) सम्पन्नम् अशनम् अशितव्यम्।
(ग) भवतः रमणीयः दवरिद्रभावः।
(घ) अर्चयन् चारुदत्तः गृहदैवतानि इत एव आगच्छति।
(ङ) सुखात् परं दरिद्रता दु:खदा भवति।
(च) अहं गृहं प्रविश्य जानामि भोज्य-व्यवस्थाम्।
प्रश्नः 7.
अधोलिखितेषु वाक्येषु कर्तृक्रियान्वितिः क्रियताम्
(i) अहम् त्वाम् निमन्त्रयितुम् ………………।(इच्छसि/इच्छामि)
(ii) मैत्रेयः इत एव ………………।(आगच्छति/आगच्छन्ति)
(iii) भवान् क्षणमात्रं ………………। (प्रतिपालय/प्रतिपालयतु)
(iv) धनानि श्रमेण पुनः………………।(भवन्ति/भवति)
(v) मित्र! अहं किमर्थं सन्तापं ………………।(करिष्यसे/करिष्ये)
उत्तरः
(i) अहम् त्वाम् निमन्त्रयितुम् इच्छामि।
(ii) मैत्रेयः इत एव आगच्छति।
(iii) भवान् क्षणमात्रं प्रतिपालयतु।
(iv) धनानि श्रमेण पुनः भवन्ति।
(v) मित्र! अहं किमर्थं सन्तापं करिष्ये।
प्रश्नः 8.
रेखाङ्कितपदेषु उपपदविभक्तिं तत्कारणं च निर्दिशत
(क) अहम् पारावतैः समम् यत्र-तत्र गच्छामि।
(ख) अलं भवतः संतापेन।
(ग) सत्त्वं च न परिभ्रष्टं यद् दरिद्रेषु दुर्लभम्।
उत्तरः
(क) तृतीया विभक्तिः । ‘समम्’ के योग में तृतीया विभक्ति होती है।
(ख) तृतीया विभक्तिः। निषेध अर्थ में ‘अलम्’ के योग में तृतीया विभक्ति होती है।
(ग) सप्तमी विभक्तिः। ‘अधिकरण कारक’ में सप्तमी विभक्ति होती है।
प्रश्नः 9.
एतेषु सर्वनामपदानि अव्ययपदानि च पृथक्कृत्य लिखत –
अद्य, प्रत्यूषे, मम, अलम्, तव, इदम्, इदानीम्, भवान्। …………………………………
उत्तरः
(क) सर्वनामपदानि-मम, तव, इदम्, भवान्।
(ख) अव्ययपदानि-अद्य, प्रत्यूषे, अलम्, इदानीम्।
प्रश्न: 10.
प्रसंगानुसारं रेखाङ्कितपदानां शुद्धम् अर्थं चित्वा लिखत
(क) संविधा विहिता न वेति गेहं गत्वा जानामि। ………………………………… (संविधानम्/भोजनम्/भोज्यव्यवस्था)
(ख) बहुलपक्षचन्द्रस्य ज्योत्स्नापरिक्षय इव रमणीयः दरिद्रभावः।………………………………… (बहवः पक्षाः कृष्णपक्षस्य/बहूनां पक्षे)
(ग) पापं कर्म च यत् परैरपि कृतं तत्तस्य सम्भाव्यते। ………………………………… (श्रेष्ठैः/शत्रुभिः/सामान्यजनैः)
(घ) सत्त्वं च न परिभ्रष्टं यद् दरिद्रेषु दुर्लभम्। …………………………………(मनः/सत्त्वोगुण:/बलम्)
उत्तरः
प्रश्न: 11.
प्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतभाषया लिखत
(क) सूत्रधारः रङ्गमञ्चे कदा प्रविशति? …………………………………
(ख) सूत्रधारस्य अक्षिणी केन कारणेन चञ्चलायेते? …………………………………
(ग) विदूषकस्य किं नाम आसीत्? …………………………………
(घ) चारुदत्तः कीदृशस्य पुरुषस्य दारिद्र्यं दारुणातरं मन्यते स्म? …………………………………
(ङ) चारुदत्तस्य दरिद्रभावः किमिव रमणीयो भवति? …………………………………
(च) सुखं कदा शोभते? …………………………………
(छ) दरिद्रेषु किम् किम् दुर्लभं मन्यते? …………………………………
(ज) अयं पाठः कस्माद् ग्रन्थाद् उद्धृतः कश्च तस्य लेखक:? …………………………………
उत्तरः
(क) सूत्रधारः रङ्गमञ्चे नान्द्यन्ते प्रविशति।
(ख) सूत्रधारस्य अक्षिणी बुभुक्षया चञ्चलायेते।
(ग) विदूषकस्य नाम मैत्रेयः आसीत्।
(घ) चारुदत्तः गुणरसज्ञस्य पुरुषस्य दारिद्र्यं दारुणतरं मन्यते स्म।
(ङ) चारुदत्तस्य दरिद्रभावः बहुलपक्षचन्द्रस्य ज्योत्स्नापरिक्षय इव रमणीयो भवति।
(च) सुखं दुःखानि अनुभूय शोभते।
(छ) दरिद्रेषु विभवानुवशा भार्या, समदु:खसुखं मित्रं, सत्त्वं च दुर्लभं मन्यन्ते।
(ज) अयं पाठः ‘चारुदत्तम्’ नाटकग्रन्थात् उद्धृतः, महाकविः भासश्च तस्य लेखकः।
प्रश्न: 12.
अत्र कः कम् प्रति कथयति?
उत्तरः
प्रश्न: 13.
अधः कानिचित् कथनानि भावपरकानि सन्ति। मञ्जूषायाः तं-तं भावं विचित्य तत्-तत् कथनसमक्षं लिखत
(क) आर्य! दिष्ट्या खलु आगतोऽसि। ……………………
(ख) यदि आर्यस्यानुग्रहः स्यात् तर्हि कञ्चिद् योग्यं जन निमंत्रयितुम् इच्छामि। ……………………
(ग) भोः दारिद्र्यं नाम मनस्विनः पुरुषस्य सोच्छ्वासं मरणम्। ……………………
(घ) गुणरसज्ञस्य तु पुरुषस्य व्यसनं दारुणतरं मां प्रतिभाति। ……………………
(ङ) चिरं जीव, एवं शोभनानां भोजनानां दात्री भव। ……………………
(च) आर्ये! किमेतत् सर्वम् अस्माकं गेहेऽस्ति। ……………………
(छ) वयस्य किमर्थं सन्तापं करिष्ये। ……………………
(ज) अलम् इदानीं भवान् अतिमात्रं सन्तप्तुम्। ……………………
(निवेदनम्, हर्षः, दया, शोकः, आशीर्वादः, सन्तोषः, सान्त्वना, आश्चर्यम्)
उत्तरः
(क) आर्य! दिष्ट्या खलु आगतोऽसि। – हर्षः
(ख) यदि आर्यस्यानुग्रहः स्यात् तर्हि कञ्चिद् योग्यं जन निमंत्रयितुम् इच्छामि। – निवेदनम्
(ग) भोः दारिद्र्यं नाम मनस्विनः पुरुषस्य सोच्छ्वासं मरणम्। – शोकः
(घ) गुणरसज्ञस्य तु पुरुषस्य व्यसनं दारुणतरं मां प्रतिभाति। – दया
(ङ) चिरं जीव, एवं शोभनानां भोजनानां दात्री भव। – आशीर्वादः
(च) आर्ये! किमेतत् सर्वम् अस्माकं गेहेऽस्ति! – आश्चर्यम्
(छ) वयस्य किमर्थं सन्तापं करिष्ये। – सन्तोषः
(ज) अलम् इदानीं भवान् अतिमात्र सन्तप्तुम्। – सान्त्वना।
प्रश्नः 14.
अधः प्रवत्तवाक्यांशानां भावार्थेषु उचितं भावार्थं (✓) चिह्नन चिह्नितं कुरुत –
(क) बहुलपक्षचन्द्रस्य ज्योत्स्नापरिक्षय इव भवतः एव रमणीयोऽयं दरिद्रभावः।
(i) यथा कृष्णपक्षे चन्द्रः सततं प्रकाशहीनः भवति तथैव शनैः शनैः चारुदत्तः धनहीनो जातः।
(ii) यथा कृष्णपक्षे क्षयं प्राप्ता चन्द्रकला शुक्लपक्षे प्रतिपदातिथौ शुभा भवति, तथैव दानेन धनविहीनस्य चारुदत्तस्य दरिद्रता शोभते एव।
(iii) क्षीणा चन्द्रकलेव चारुदत्तस्य दरिद्रता शोभते।
उत्तरः
(ii) उचित भावार्थ:-यथा कृष्णपक्षे क्षयं प्राप्ता चन्द्रकला शुक्लपक्षे प्रतिपदातिथौ शुभा भवति, तथैव दानेन धनहीनस्य चारुदत्तस्य दरिद्रता शोभते एव। ( ✓ )
(ख) गुणरसज्ञस्य तु पुरुषस्य व्यसनं दारुणतरं मां प्रतिभाति।
(i) गुणवतः कारुण्यादिभावयुक्तस्य सहृदयजनस्य दारिद्र्यम् असह्यमेव चारुदत्तस्य कृते।
(ii) यः गुणवान् रसज्ञः च भवति तस्य दरिद्रता घोरा भवति।
(iii) गुणरसज्ञः पुरुषः तु विपत्तिं न चिन्तयति।
उत्तरः
(i) उचितः भावार्थ:-गुणवतः कारुण्यादिभावयुक्तस्य सहृदयजनस्य दारिद्र्यम् असह्यमेव चारुदत्तस्य कृते। (✓)
(ग) सत्त्वं च न परिभ्रष्टं यद् दरिद्रेषु दुर्लभम्।
(i) दरिद्रावस्थायाम् मनुष्यः भ्रष्टो भवति।
(ii) दरिद्रेषु कोऽपि मानवः भ्रष्टो भवति।
(iii) दरिद्रावस्थायां यस्य मनः नैव भ्रष्टं जातम्, तत्तु दुर्लभमेव।
उत्तरः
(iii) उचितः भावार्थ:-दरिद्रावस्थायां यस्य मनः नैव भ्रष्टं जातम्, तत्तु दुर्लभमेव। (✓)
पाठ-विकासः
भासः-
(i) संस्कृतसाहित्ये प्रसिद्धः महाकविः।
(ii) कालिदासात् पूर्ववर्ती।।
(iii) काल:-ई०पू० चतुर्थशताब्दी।
(iv) स्थानम्-उत्तरभारतवासी
(v) रचना-भासनाटकचक्रम्
(टी० गणपतिशास्त्रीमहोदयेन गवेषितम्)
नाट्य-तत्त्वानि
1. नान्दी -. नाटकस्य निर्विघ्न-समाप्तयर्थम् देवद्विजनृपादीणाम् आशीर्वचनप्राप्त्यर्थम् या स्तुतिः नाट्यपात्रैः क्रियते सा ‘नान्दी’ इति कथ्यते। नान्दी-मङ्गलाचरणम्।
2. नेपथ्यम् – वेशपरिवर्तनस्थानम्, कुशीलवकुटुम्बस्य गृहम्।
3. नाटकम् – (i) रूपकस्य प्रमुखः भेदः
(ii) वीरशृङ्गारयोः कश्चित् एकः रसः वर्ण्यते।
(iii) प्रख्यातनायकोपतम्, पञ्चसन्धिसमन्वितं ख्यातवृत्तम्।
लक्षणम् – नाटकं ख्यातवृत्तं स्यात् पञ्चसन्धिसमन्वितम्।
विलासाादिगुणवद्युवतं नानाविभूतिभिः।
सुखदुः खसमुद्भूति नानारसनिरन्तरम्।
पञ्चादिकादशपरास्तत्राका परिकीर्तिताः। (साहित्यदर्पण, 6-8)
4. नायकः – नायकः त्यागी कृती कुलीनः सुश्रीको रूपयौवनोत्साही।
दक्षोऽनुरक्तलोकस्तेजोवैदग्ध्यशीलमन्नेता।। (साहित्यदर्पण, 3-30)
नाटक का नायक प्रसिद्ध होता है तथा धीरोदात्त होता है। कथानक प्रसिद्ध तथा पाँच सन्धियों से युक्त होता है। वीर तथा शृंगार में से एक रस प्रमुख होता है। नाटक रूपक का प्रमुख भाग होता है। इसमें पाँच से लेकर दस तक अङ्क होते हैं। सुख तथा दुःख दोनों से युक्त होता है। नाना रस व भावों से भरा होता है।
भाव-विकासः
भर्तृहरिः
1. मन के सन्तुष्ट होने पर कौन दरिद्र और कौन धनवान्?
(मनसि च सन्तुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्रः।)
2. सम्पत्ति और विपत्ति दोनों में महान् पुरुष एक जैसे होते हैं।
(सम्पत्तौ विपत्तौ च महतामेकरूपता।)
कथासरित्सागरः
पैसे से दरिद्र होकर व्यक्ति जी लेता है, पर बुद्धि से दरिद्र होने पर जीवित नहीं होता।
(जीवत्यर्थदरिद्रोऽपि धीदरिद्रो न जीवति।)
गरुडपुराणम्
धन की एकमात्र गति है ‘दान’ और गति तो विपत्ति रूप हैं।
(गतिरैकेव वित्तस्य दानमन्या विपत्तयः।)
चारुदत्तम्
(1) अपराधों के होने पर प्रभावहीन दरिद्र पर शङ्का की जाती है।
(शङ्कनीया हि दोषेषु निष्प्रभावा दरिद्रता।)
(2) गर्मी में सखे तालाब के समान चारुदत्त, लोगों की प्यास बुझाकर सूख जाता है।
(निदाघसंशुष्क इव ह्रदो महान्।)
भाषा-विकासः (उपपद विभक्तिः)
‘नमः’ इति पदयोगे चतुर्थी भवति। यथा साधवे नमः। विशिष्टं पदम् आश्रित्य या विभक्तिः भवति सा उपपदविभक्तिः कथ्यते। ‘नमः’ इति विशिष्टं पदम्। एतत् पदम् आश्रित्य चतुर्थी उपपदविभक्तिः भवति। अधोलिखितानि उपपदविभक्ति-उदाहरणानि सन्ति –
- वने भासुरकः नाम सिंहः आसीत्।
अत्र ‘भासुरकः’ इति पदे प्रथमा ‘नाम’ इति पदम् आश्रित्य। - त्वं गृहम् प्रति गच्छसि।
अत्र ‘गृहम्’ इति पदे द्वितीया, ‘प्रति’ इति पदम् आश्रित्य। - राजा प्रासादम् अधिशेते/अध्यास्ते/अधितिष्ठति।
अत्र ‘प्रासादम्’ इति पदे द्वितीया, ‘अधि √आस्, स्था, शीङ्’ आदि पदम् आश्रित्य। - बटुः बलिम् याचते वसुधाम्।
अत्र ‘बलिम्’ इति पदे द्वितीया, √याचते’ इति पदम् आश्रित्य। (याच्, दुह, पच्, प्रच्छ, दण्ड्, नी, वह्, आदिधातूनां योगे द्वितीया) - मित्रम्/मित्रेण/मित्रात् विना सुखं नास्ति।
अत्र ‘मित्रम्’ पदे द्वितीया, ‘मित्रेण’ पदे तृतीया, ‘मित्रात्’ पदे च पञ्चमी, ‘विना’ पदम् आश्रित्य। - पिता पुत्रेण सह (साकम्/सार्धम्/तुल्यः/सदृशः/समः) गच्छति।
अत्र ‘पुत्रेण’ पदे तृतीया ‘सह/साकम्/सार्धम्/तुल्य:/सदृश:/समः’ इति पदस्य योगे। - दानेन तुल्यः निधिः नास्ति (तुल्य/सदृश/समयोगे)।
अत्र ‘दानेन’ पदे तृतीया ‘तुल्य/सदृश/समः’ पदस्य योगे। - नेत्रेण काणः।
अत्र तृतीया अंग विकारार्थकपद प्रयोगे। . - अलं विवादेन।
अत्र तृतीया निषेधार्थक अलम् योगे। - आचार्याय नमः।
अत्र ‘ आचार्याय’ पदे चतुर्थी ‘नमः’ पदम् आश्रित्य। - पिता पुत्राय क्रुध्यति।
अत्र ‘पुत्राय’ पदे चतुर्थी ‘क्रुध्यति’ (क्रुध द्यातोः) पदस्य योगे। - रामः रावणाय अलम्। अत्र ‘रावणाम’ पदे चतुर्थी ‘अलम्’ पदम् आश्रित्य।
- ग्रामाद् बहिः उद्यानम्। अत्र ‘बहिः’ योगे पञ्चमी।
- नदीनाम्/नदीषु गङ्गा श्रेष्ठा। अत्र निर्धारणार्थे। (इष्ठन् प्रत्ययस्य यागे) ‘श्रेष्ठा’ पदस्य अर्थे सप्तमी।
- त्वम् युद्धे कुशलः (योग्य/दक्ष/चतुर/प्रवीण पर्याप्तः अर्थे) अत्र ‘कुशलः’ पदस्य योगे ‘युद्धे’ पदे सप्तमी।
- माता पुत्रे स्निह्यति। अत्र ‘पुत्रे’ पदे सप्तमी ‘स्निह’ धातुयोगे।
अतिरिक्त-अभ्यासः
प्रश्न: 1.
निम्नलिखितम् अनुच्छेदं पठित्वा तदाधारितान् प्रश्नान् उत्तरत – 5
(ततः प्रविशति विदूषकः)
विदूषकः – ननु भणामि, अन्यमन्यं निमन्त्रयतु भवान्। किं भणसि-“सम्पन्नम् अशनम् अशितव्यं भविष्यतीति।” भणामि, कार्यान्तरे व्यस्तः। अथवा मयापि मैत्रेयेण परस्य आमन्त्रणकानि अभिलषणीयानि। योऽहं तत्रभवतः चारुदत्तस्य गेहेऽहोरात्रम् आकण्ठमात्रम् अशित्वा दिवसान् अनयमः स एव इदानीमहं तत्रभवतः चारुदत्तस्य दरिद्रतया पारावतैः समम् अन्यत्र भुक्त्वा तस्यावासमेव गच्छामि।
पुनरपि सन्तुष्टोऽहम्। तदैव तत्रभवतः चारुदत्तस्य देवकार्यकारणात् गृहीतानि सुमनसः अन्तरीयवासः च।
(परिक्रम्यावलोक्य)
एष तत्रभवान् चारुदत्तः यथाविभवं गृहदैवतानि अर्चयन् इत एवावगच्छति। यावद् एनमुपसमि।
I. एकपदेन उत्तरत (1/2 x 4 = 2)
(i) विदूषकः कस्य गेहे अशित्वा दिवसान् अनयत्?
(ii) विदूषकः कथं सुमनसः अन्तरीयवासश्च गृहीतवान्?
(iii) तत्र कीदृशम् अशनं भविष्यति?
(iv) कः ‘अन्यमन्यं निमन्त्रयतु भवान्’ इति कथयति?
उत्तरः
(i) चारुदत्तस्य
(ii) देवकार्यकारणात्
(iii) सम्पन्नम्
(iv) विदूषकः
II. पूर्णवाक्येन उत्तरत (1 x 2 = 2)
(i) विदूषकः कथं अन्यत्र भुक्त्वा चारुदत्तस्य आवासं गच्छति?
(ii) विदूषकेण कानि अभिलषणीयानि?
उत्तरः
(i) विदूषक: चारुदत्तस्य दरिद्रतया अन्यत्र भुक्त्वा चारुदत्तस्य आवासं गच्छति।
(ii) विदूषकेण परस्यं आमन्त्रणकानि अभिलषणीयानि।
III. निर्देशानुसारेण उत्तरत् (1/2 x 2 = 1)
(i) अनुच्छेदे ‘अभिलषणीयानि’ इति क्रियापदस्य कर्तपदं किम्?
(ii) ‘अशनम्’ इति विशेष्यपदस्य अनुच्छेदे किं विशेषणं प्रयुक्तम्?
उत्तरः
(i) मया मैत्रेयेण
(ii) सम्पन्नम्
2. अधोलिखितं नाट्यांशम् आधृत्य प्रदत्तानाम् प्रश्नानाम् उत्तराणि लिखत। – 5
(क) चारुदत्तः – (दीर्घ निःश्वस्य) भोः दारिद्र्यं खलु नाम मनस्विनः पुरुषस्य सोच्छ्वासं मरणम्।
विदूषकः – अलम् इदानीं भवान् अतिमानं सन्तप्तुम्। दानेन विपन्नविभवस्य, बहुलपक्षचन्द्रस्य ज्योत्स्नापरिक्षय इव भवतः रमणीयोऽयं दरिद्रभावः।
चारुदत्तः – न खल्वहं नष्टां श्रियम् अनुशोचामि। गुणरसज्ञस्य तु पुरुषस्य व्यसनं दारुणतरं मां प्रतिभाति।
I. एकपदेन उत्तरत (1/2 x 4 = 2)
(क) कस्य ज्योत्स्नापरिक्षयः रमणीयो भवति?
(ख) कीदृशस्य पुरुषस्य दारिद्र्यं सोच्छ्वासं मरणम्?
(ग) चारुदत्तः कीदृशीम् श्रियं न अनुशोचति।
(घ) कः सन्तप्ताय चारुदत्ताय सान्त्वनां ददाति?
उत्तरः
(i) बहुलपक्षचन्द्रस्य
(ii) मनस्विनः
(iii) नष्टाम्
(iv) विदूषक
II. पूर्णवाक्येन उत्तरत (1/2 x 2 = 1)
(1) कस्य जनस्य व्यसनं दारुणतरं भवति?
(2) दारिद्र्यं मनस्विनः पुरुषस्य किं भवति?
उत्तरः
(i) गुणरसज्ञस्य पुरुषस्य व्यसनं दारुणतरं भवति।
(ii) दारिद्र्यं मनास्विनः पुरुषस्य सोच्छ्वासं मरणाम् भवति।
III. निर्देशानुसारम् उत्तरम (1/2 x 4 = 2)
(क) ‘खल्वहं इत्यत्र अहम् पदं कस्मै प्रयुक्तम्?
(ख) ‘नष्टां श्रियम्’ अत्र विशेषणपदं किम्?
उत्तरः
(i) चारुदत्ताय
(ii) नष्टां (ख)
(ख) (नान्द्यन्ते ततः प्रविशति सूत्रधारः)
सूत्रधारः – किन्नु खलु अद्य प्रत्यूष एव गेहान्निष्क्रान्तस्य बुभुक्षया पुष्करपत्रपतितजलबिन्दू इव चञ्चलायेते इव मेऽक्षिणी। यावद् गेहं गत्त्वा जानामि किन्नु खलु संविधा विहिता न वेति। (परिक्रम्य) एतद् अस्माकं गृहम्। यावत् आर्यां शब्दापयामि। आर्ये! इतस्तावत्।
नटी – (प्रविश्य) आर्य! इयमस्मि। आर्य दिष्ट्या खलु आगतोऽसि।
सूत्रधारः – आर्ये! किम् अस्त्यस्माकं गेहे कोऽपि प्रातराशः।
नटी – अस्ति, घृतं गुडो दधि तण्डुलाश्च सर्वमस्ति।
सूत्रधारः – चिरं जीव, एवं शोभनानां भोजनानां दात्री भव। आर्ये! किमेतत् सर्वम् अस्माकं गेहेऽस्ति।
नटी – नहि नहि , अन्तरापणे।
I. एकपदेन उत्तरत (1/2 x 4 = 2)
(i) सूत्रधारस्य के चञ्चलायेते?
(ii) सूत्रधारः काम् शब्दापयति?
(iii) नदी नटं केन पदेन सम्बोधयति?
(iv) सूत्रधारः स्वगेहे कस्य विषये पृच्छति?
उत्तरः
(i) अक्षिणी
(ii) आर्याम् (गृहस्वामिनीम्)
(iii) आर्य-पदेन
(iv) प्रातराशस्य
II. पूर्णवाक्येन उत्तरत (1 x 1 = 1)
सूत्रधारस्य गृहे किं-किं वर्तते?
उत्तरः
सूत्रधारस्य गृहे धृतं, गुडः, दधि तण्डुलाश्च सर्व वर्तन्ते।
III. निर्देशानुसारेण उत्तरत (1/2 x 4 = 2)
(i) संवादे ‘आर्य दिष्ट्या’ अत्र ‘आर्य’ पदं कस्मै आगतम्?
(ii) संवादे ‘चञ्चलायेते’ इति क्रियापदस्य कर्तृपदं किम्?
(iii) ‘सौभाग्येन’ अस्य पदस्य अर्थ नाट्यांशे किं पदं प्रयुक्तम्?
(iv) ‘शोभनानां भोजनानाम्’ अत्र अनयोः पदयोः विशेषणपदं किम् अस्ति?
उत्तरः
(i) सूत्रधाराय
(ii) अक्षिणी
(iii) दिष्ट्या
(iv) शोभनानाम्
(ग) सूत्रधारः – (सरोषम् ) आः अनार्ये! एवं ते आशा छिद्यताम्। अहं पर्वताद् दूरमारोप्य पातितोऽस्मि। नटी – मा बिभीहि, मा बिभीहि। मुहूर्तकं प्रतिपालयतु आर्यः। सर्वं सज्जं भविष्यति। आर्य! अद्य ममोपवासः अस्ति। यदि आर्यस्यानुग्रहः स्यात् तर्हि अस्मादृशयोग्यं कञ्चिद् जनं निमन्त्रयितुम् इच्छामि।
सूत्रधारः – (परिक्रम्य) कुत्र नु खलु दरिद्रं योग्यं जनं लभेय। (विलोक्य) एष आर्यचारुदत्तस्य वयस्यः आर्यमैत्रेयः इत एवागच्छति। यावद् उपनिमन्त्रयामि। (परिक्रम्य) आर्य! निमन्त्रितोऽसि। (निष्क्रान्तः) (नेपथ्ये) अन्यमन्यं निमन्त्रयतु भवान्। नाहं तावद् दरिद्रः।
I एकपदेन उत्तरत (1/2 x 2 = 1)
(i) नटी कञ्चिद् जनं किम् कर्तुम् इच्छति?
(ii) चारुदत्तस्य वयस्यः कः अस्ति?
उत्तरः
(i) निमन्त्रयितुम्
(ii) आर्यमैत्रेयः
II पूर्णवाक्येन उत्तरत (1 x 2 = 2)
(i) सूत्रधारः रोषेण सह नटी किं कथयति?
(ii) नटी कीदृशं जनं निमन्त्रयितुम् इच्छति?
उत्तरः
(i) सूत्रधारः रोषेण सह नटीं कथयति- ‘आ: अनार्यः एवं ते आशा छिद्यताम्। अहं पर्वताद् दूरमारोप्य पतितोऽस्मि।
(ii) नटी अस्मादृश (स्वादृश) योग्यं कञ्चिद् जनं निमन्त्रीय तुम इच्छति।
III. निर्देशानुसारेण उत्तरत् (1/2 x 4 = 2)
(i) ‘धनवन्तम्’ अस्य पदस्य कः विपर्ययः नाट्यांशे आगतः?
(ii) ‘अद्य ममोपवासः अस्ति’ अत्र ‘मम’ पदं कस्यै प्रयुक्तम्?
(iii) ‘आगच्छति’ अस्याः क्रियायाः कर्तृपदं किम्?
(iv) ‘सर्वं सज्जम्’ अनयोः पदयोः विशेष्यपदं किम् अस्ति?
उत्तरः
(i) दरिद्रम्
(ii) नट्यै
(iii) आर्यमैत्रेयः
(iv) सज्जम्
(घ) विदूषकः- वसन्ते यथा शरस्तम्बस्य अङ्कुराद् अङ्कुराः निःसरन्ति तथैव धनविनाशदुःखस्य पुनः पुनः चिन्त्यमानस’ नानाविधाः चिन्ताकुराः प्रादुर्भवन्ति। तदलं भवतः सन्तापेन।
चारुदत्त – किमर्थं सन्तापं करिष्ये।
I. एकापदेन उत्तरत (1/ 2 x 2 = 1)
(i) चारुदत्तः किं न करिष्यति?
(ii) कदा शरस्तम्बस्य अङ्कुराः निःसरन्ति?
उत्तरः
(i) सन्तापम्
(ii) वसन्ते
II. पूर्णवाक्येन उत्तरत (1 x 2 = 2)
(i) कस्य जनस्य हृदये नानाविधाः चिन्ताकुराः प्रादुर्भवन्ति?
(ii) वसन्ते के नि:सरन्ति?
उत्तरः
(i) धन विनाश दु:खस्य पुनः-पुनः चिन्त्यमानस्य जनस्य हृदये नानाविधाः चिन्ताङ्कुरा प्रादुर्भवन्ति।
(ii) वसन्ते शरस्तम्बस्य अङ्कुराद् अङ्कुरा निः सरन्ति।
III. निर्देशानुसारेण उत्तरत (1/2 x 4 = 2)
(i) ‘निःसरन्ति’ इत्यस्य क्रियापदस्य कर्तृपदं किम्?
(ii) संवादे ‘संतापेन’ इत्यस्मिन् पदे कथं तृतीया विभक्तिः आगता?
(iii) ‘जायन्ते’ इत्यस्य पदस्य कः पर्यायः संवादे प्रयुक्तः?
(iv) ‘कदाचित्’ इति पदस्य संवादे कः विपर्ययः आगतः?
उत्तरः
(i) अङ्कुराः
(ii) ‘अलम’ अव्ययस्य योगे अत्र ‘संतापने’ पदे तृतीया विभक्तिः आगता।
(iii) प्रादुर्भवन्ति
(iv) पुनः पुनः
3. निम्नलिखितं श्लोक पठित्वा तदोधारित प्रश्नान् उत्तरम – 5
(क) सत्यं न मे धनविनाशगता विचिन्ता भाग्यक्रमेण हि धनानि पुनर्भवन्ति।
एतत्तु मां दहति नष्टधनश्रियो मे यत् सौहृदानि सुजने शिथिलीभवन्ति॥
I. एकपदेन उत्तरत (1/2 x 4 = 2)
(i) धनानि केन पुनर्भवन्ति?
(ii) चारुदत्तस्य कीदृशी चिन्ता नास्ति?
(iii) सुजने कानि शिथिली भवन्ति?
(iv) कीदृशस्य चारुदत्तस्य सौहृदानि शिथिली भवन्ति?
उत्तरः
(i) भाग्यक्रमण
(ii) धनविनाशगता
(iii) सौहृदानि
(iv) नष्टधनश्रियः
II. एकपदेन उत्तरत (1 x 1 = 1)
कस्मात् चारुदत्तः धने विनाशं गते अपि चिन्तां न करोति?
उत्तरः
भाग्यक्रमात् चारुदत्तः धने विनाशंगते अपि चिन्तां न करोति।
III. निर्देशानुसारम् उत्तरत (1/2 x 4 = 2)
(i) ‘एतत्’ इति पदं कस्यार्थे प्रयुक्तम्?
(ii) ‘अशिथिलानि शिथिलानि भवन्ति’ एतदर्थे एकपदं लिखत।
(iii) ‘पुनर्भवन्ति’ इति क्रियापदस्य कर्तृपदं किम्?
(iv) ‘शोभा’ इति पदस्य श्लोके कः पर्यायः प्रयुक्तः?
उत्तरः
(i) सत्याय
(ii) शिथिलीभवन्ति
(iii) धनानि
(iv) श्री (श्रियः)
(ख) सुखं हि दुःखान्यनुभूय शोभते
यथान्धकारादिव दीपदर्शनम्।
सुखात्तु यो याति दशां दरिद्रतां
स्थितः शरीरेण मृतः स जीवति॥
I. एकपदेन उत्तरत (1/2 x 2 = 1)
(i) कानि अनुभूय सुखं हि शोभते?
(ii) अन्धकारात् परः किं शोभते?
उत्तरः
(i) दुःखानि
(ii) दीपदर्शनम्
II. पूर्णवाक्येन उत्तरत (1x 2 = 2)
(i) कः मृतः इव जीवति?
(ii) दुःखानाम् पश्चात् सुखं कीदृशं भवति?
उत्तरः
(i) यः सुखात् तु दरिद्रता दशां याति सः शरीरेण स्थितः मृत इव जीवति।
(ii) दु:खानाम् प्रश्नात् सुखं शोभनं भवति।
III. निर्देशानुसारेण उत्तरत (1/2 x 4 = 2)
(i) श्लोके ‘सुखानि’ पदस्य कः विपर्ययः प्रदत्तः?
(ii) ‘जीवति’ इति क्रियापदस्य श्लोके किम् कर्तृपदम् प्रयुक्तम्?
(iii) ‘प्राप्नोति’ इति क्रियायाः कः पर्यायः श्लोके आगतः?
(iv) ‘मृतः स जीवति’ अत्र ‘सः’ पदं कस्मै प्रयुक्तम्?
उत्तरः
(i) दुःखानि
(ii) सः
(iii) याति
(iv) दरिद्राय
(ग) निर्वैरा विमुखी भवन्ति सुहृदः स्फीता भवन्त्यापदः।
पापं कर्म च यत् परैरपि कृतं तत्तस्य संभाव्यते।।
I. एकपदेन उत्तरत- ( 1/2 x 1 = 2)
(i) चारुदत्तस्य कीदृशाः सुहृदः विमुखी भवन्ति?
(ii) तस्य काः स्फीताः भवन्ति?
उत्तरः
(i) निर्वैराः
(ii) आपदः
II. पूर्णवाक्येन उत्तरत – (1 x 1 = 1)
निर्धनतायाः कारणेन जनस्य किं संभाव्यते?
उत्तरः
निर्धनतायाः कारणेन जनस्य परैः अपि कृतम् पापं कर्म तस्य एव संभाव्यते।
III. निर्देशानुसारेण उत्तरत – (1/2 x 4 = 2)
(i) श्लोके ‘सुहृदः’ इति कर्तृपदस्य क्रियापदं किम्?
(ii) श्लोके ‘सुहृदः’ इति विशेष्यपदस्य विशेषणपदं किम् आगतम्?
(iii) ‘भवन्ति’ इति क्रियापदस्य कर्तृपदं किम्?
(iv) ‘मित्राणि’ इति पदस्य क: पर्यायः अस्मिन् श्लोके आगतः?
उत्तरः
(i) विमुखीभवन्ति ।
(ii) निर्वैराः
(iii) आपदः
(iv) सुहृदः
(घ) विभावनुवशा भार्या समदुःखसुखो भवान्।
सत्त्वं च न परिभ्रष्टं यद् दरिद्रेषु दुर्लभम्॥
I एकपदेन उत्तरत – ( 1/2 x 1 = 2)
(i) का विभवस्य अनुवशा भवति?
(ii) चारुदत्तस्य मित्रं विदूषकः तस्मै कीदृशम् अस्ति?
उत्तरः
(i) भार्या
(ii) समदुःखसुखम्
II. पूर्णवाक्येन उत्तरत – (1 x 1 = 1)
(i) के दरिद्रेषु दुर्लभाः भवन्ति?
(ii) दरिद्रतायां जनस्य सत्त्वं कीदृशं भवति?
उत्तरः
(i) विभानुवशा भार्या समदु:खसुखं मित्रं न परिभ्रष्टं सत्वम् च दरिद्रेषु दुर्लभाः भवन्ति।
(ii) दरिद्रतायां जनस्य सत्त्वं परिभ्रष्टं भवन्ति।
III. निर्देशानुसारेण उत्तरत – (1/2 x 4 = 2)
(i) “विभवानुवशा भार्या’ अनयोः पदयोः विशेषणं किम् अस्ति?
(ii) ‘सुलभम्’ इति पदस्य कः विपर्ययः अत्र आगतः?
(iii) ‘बुद्धिः’ पदस्य कः पर्यायः श्लोके अत्र आगतः?
(iv) श्लोकात् एकम् अव्ययपदं चित्त्वा लिखत।
उत्तरः
(i) विभवानुवशा
(ii) दुर्लभम्
(iii) सत्त्व म्
(iv) च
4. I. कः कम् कथयति (1 + 1 = 2)
(i) आर्ये! किम् अस्त्यस्माकं गेहे कोऽपि प्रातराशः?
(ii) यदि आर्यस्यानुग्रहः स्यात् तर्हि अस्मादृशयोग्यं कञ्चिद् जनं निमन्त्रयितुम् इच्छामि।
(iii) बुभुक्षया पुष्कर-पत्र-पतितजलबिन्दू इव चञ्चलायेते इव मेऽक्षिणी।
(iv) सम्पन्नम् अशनम् आशितव्यं भविष्यतीति।
(v) गुणरसज्ञस्य तु पुरुषस्य व्यसनं दारुणतरं मां प्रतिभाति।
(vi) धनविनाशदुःखस्य पुनः पुनः चिन्त्यमानस्य नानाविद्याः चिन्ताकुराः प्रादुर्भवन्ति।
उत्तरः
(i) कः-सूत्राधारः कम्-नटीम्
(ii) कः-नटी कम्-सूत्रधारम्
(iii) कः-सुत्रधारः कम्-आत्मानम्
(iv) कः-विदूषकः कम्-सूत्रेधारम्
(v) कः-चारुदत्तः कम्-विदूषकम्
(vi) कः-विदूषकः कम्-चारुदत्तम्
II. ग्रन्थस्य लेखकस्य च नामनी लिखत – (1 + 1 = 2)
(i) आः अनार्ये! एवं ते आशा छिद्यताम्। अहं पर्वताद् दूरमारोप्य पातितोऽस्मि।
(ii) इदानीमहं तत्रभवतः चारुदत्तस्य दरिद्रतया पारावतैः समम् अन्यत्र भुक्त्वा तस्यावासमेव गच्छामि।
(iii) तदैव तत्रभवतः चारुदत्तस्य देवकार्यकारणात् गृहीतानि सुमनसः अन्तरीयवासः च।
(iv) गुणरसज्ञस्य तु पुरुषस्य व्यसनं दारुणतरं मां प्रतिभाति।
(v) सुखं हि दुःखान्यनुभूय शोभते।
उत्तरः
(i) ग्रन्थस्य नाम-‘चारुदत्तम्’ लेखकस्य नाम-महाकवि:भासः
(ii) ग्रन्थस्य नाम-‘चारुदत्तम्’ लेखकस्य नाम-महाकवि:भासः
(iii) ग्रन्थस्य नाम- चारुदत्तम्’ लेखकस्य नाम-महाकवि:भासः
(iv) ग्रन्थस्य नाम- चारुदत्तम्’ लेखकस्य नाम-महाकवि:भासः
(v) ग्रन्थस्य नाम-‘चारुदत्तम्’ लेखकस्य नाम-महाकवि:भासः
5. I. निम्नलिखितानां पङ्क्तीनाम् अधः दत्तेषु भावेषु शुद्धं भावं चित्त्वा लिखत- (1 x 1 = 2)
(क) “बुभुक्षया पुष्कर-पत्र-पतित जलबिन्दू इव चञ्चलायेते इव मेऽक्षिणी”।
अर्थात् –
(i) कमलपत्रे बुभुक्षया मे नेत्रे चञ्चले भवतः।
(ii) बुभुक्षयाः कारणेन कमलपत्रे स्थितं जलबिन्दुम् इव मे नेत्रे चञ्चले स्तः।
(iii) बुभुक्षया मे नेत्रे कमलपत्रस्यबिन्दुम् इव चञ्चले न स्तः।
उत्तरः
(ii) बुभुक्षायाः कारणेन कमलपत्रे स्थितं जलबिन्दुम् इव मे नेत्रे चञ्चले स्तः।
(ख) “अहं पर्वताद् दूरमारोप्य पतितोऽस्मि”।
अर्थात् –
(i) त्वम् माम् पर्वते आरोग्य पातिता असि।
(ii) त्वम् मयि आशां जागरयित्वा पुनः निराशः कृतवती।
(iii) अहं पर्वतम् आरुह्य पतितोऽस्मि।
उत्तरः
(ii) त्वम् मयि आशां जागरयित्वा पुनः निराशः कृतवती।
(ग) “भोः दारिद्र्यं खलु नाम मनस्विनः पुरुषस्य सोच्छ्वासं मरणम्”।
अर्थात् –
(i) अहो! खलु दरिद्रता मनस्विने जनाय जीवने एव मृत्युरिव भवति।
(ii) अहो! दरिद्रता खलु मननशीलस्य मृत्युः न भवति।
(iii) अहो! दरिद्रता खलु मननशीलं जनं जीवनं मृत्युञ्च ददाति।
उत्तरः
(i) अहो! खलु दरिद्रता मनस्विने जनाय जीवने एव मृत्युरिव भवति।
(घ) “यत् सौहृदानि सुजने शिथिलीभवन्ति।
अर्थात् –
(i) मम मित्राणां प्रेम मां सज्जनं प्रति शिथिलं भवति।
(ii) मम मित्राणि मां दृष्ट्वा शिथिलानि भवन्ति।
(iii) माम् दृष्ट्वा मम मित्राणां भाववृद्धिः भवति।
उत्तरः
(i) मम मित्राणां प्रेम मां सज्जनं प्रति शिथिलं भवति।
II. निम्न पङ्क्तीनां भावो रिक्तस्थानपूर्ति माध्यमेन उचित शब्दैः सम्पूरयत – (1/2 x 4 = 2)
(क) ‘दानेन विपन्नविभवस्य, बहुलपक्ष चन्द्रस्य ज्योत्स्नापरिक्षय इव भवतः रमणीयोऽयं दरिद्रभावः’ अस्य भावोऽस्ति –
भोः मित्र! यथा कृष्णपक्षस्य (i) ………… प्रकाशेन (ज्योत्स्नया) क्षीणः भवति सति अपि अति (ii) ………….. प्रतीयते तथैव (iii) ……… कारणेन नष्टधनस्य भवतः (iv) ………….. अपि रमणीयताम् आप्नोति।
उत्तरः
(i) चन्द्रस्य
(ii) रमणीयः
(iii) दानस्य
(iv) दरिद्रताभावः
(ख) ‘सुखात् तु यो याति दशां दरिद्रता, स्थितः शरीरेण मृतः स जीवति’। अस्य भावोऽस्ति यत् –
चारुदत्तः दुखं प्रकटन् स्व मित्रं विदूषकं वदति यत् मम सदृशः य जनः (i) …………. अनुभूय दरिद्रतायाः (ii) ……….. प्राप्नोति सः जनः जीवितः भवति सति (iii) ………… एव अस्ति अर्थात् तस्य जीवनस्य संसारे किञ्चिद् अपि (iv) ………. न भवति। (ग) ‘भाग्यक्रमेण हि धनानि पुनर्भवन्ति’ अर्थात् –
उत्तरः
(i) सुखानि
(ii) दशाम्
(iii) मृतः
(iv) महत्त्वं
(ग) ‘भाग्यक्रमेण हि धनानि पुनर्भवन्ति’ अर्थात् –
अस्मिन् संसारे (i) ………… तु कदापि स्थैर्यं न प्राप्नोति। योऽद्य सधनोऽस्ति स एव श्वः (ii) ………… भविष्यति परन्तु योऽधुना निर्धनो वर्तते स एव पश्चात् (iii) ………….. भवितुमर्हति। यथा चक्रनेमि क्रमशः उपरि-अधः क्रमानुसारं याति आयाति च तथैव मानवजीवने (iv) ………… दु:खम् चापि क्रमशः आगच्छतः।
उत्तरः
(i) भाग्यक्रमः
(ii) निर्धनः
(iii) धनिकः
(iv) सुखम्
6. निम्न श्लोकं पठित्वा तदाधारितम् अन्वयं रिक्त स्थान पूर्ति माध्यमेन पुनः लिखत- (1 x 4 = 4)
I. सुखं हि दुःखान्यनुभूय शोभते
यथान्धकारादिव दीपदर्शनम्।
सुखात्तु यो याति दशां दरिद्रतां
स्थितः शरीरेण मृतः स जीवति।।
अन्वयः – अन्धकारात् (i) ……….. इव यथा हि दुःखानि अनुभूय (ii) ……….शोभते (तथैव) यः तु सुखात् (iii) …………दशां याति स: (iv) …………. स्थितः मृतः (इव) जीवति।
उत्तरः
(i) दीपदर्शनम्
(ii) सुखम्
(iii) दरिद्रतां
(iv) शरीरेण
II. सत्यं न मे धनविनाशगता विचिन्ता
भाग्यक्रमेण हि धनानि पुनर्भवन्ति। एततु मां दहति नष्टधनश्रियो मे यत् सौहृदानि सुजने शिथिलीभवन्ति॥
अन्वयः – सत्यं (यत्) मे (i) . …. विचिन्ता न (अस्ति), हि धनानि (ii) ……….पुनः भवन्ति। एतत् तु मां दहति यत् (iii) ………….मे सुजन (iv) …………. शिथिलीभवन्ति।
उत्तरः
(i) धनविनाशगता
(ii) भाग्यक्रमण
(iii) नष्टधनश्रियः
(iv) सौहृदानि
III. निर्वैरा विमुखी भवन्ति सुहृदः स्फीता भवन्त्यापदः।
पापं कर्म च यत् परैरपि कृतं तत्तस्य सम्भाव्यते॥
अन्वयः – निर्वैराः (i) ……… विमुखी भवन्ति (ii) ………स्फीताः भवन्ति पापं (iii) ………च यत् परैः अपि (iv) ………. तत् तस्य संभाव्यते।
उत्तरः
(i) सुहृदः
(ii) आपदः
(iii) कर्म
(iv) कृतं
IV. विभवानुवशा भार्या समदुःखसुखो भवान्।
सत्त्वं च न परिभ्रष्टं यद् दरिद्रेषु दुर्लभम्।।
अन्वयः – (मम) विभव- (i) …………. भार्या (अस्ति) भवान् (ii) ………….(सुहृद् अस्ति) यत् च (iii) ………….दुर्लभम् (भवति) (तत्) (iv) …………. न परिभ्रष्टम् (अस्ति)।
उत्तरः
(i) अनुवशा
(ii) समदुःखसुखः
(iii) दरिद्रेषु
(iv) सत्त्वम्
7. (क) निम्नलिखितान् वाक्यान् कथाक्रमानुसारेण क्रमबद्धान् कुरुत – (1/2 x 8 = 4)
I. (i) आर्य! इयमस्मि। आर्य दिष्ट्या खलु आगतोऽसि।
(ii) चिरंजीव, एवं शोभनानां भोजनानां दात्री भव। .
(iii) आर्य अद्य मम उपवासः अस्ति।
(iv) बुभुक्षया पुष्कर-पत्र-पतित जलबिन्दू इव चञ्चलायेते मेऽक्षिणी।
(v) आर्ये! किम् एतत् सर्वम् अस्माकं गेहे अस्ति?
(vi) यदि आर्यस्य अनुग्रहः स्यात् तर्हि अस्मादृशयोग्यं कञ्चिद् जनं निमन्त्रयितुम् इच्छामि।
(vii) अहं पर्वताद् दूरम् आरोग्य पतितोऽस्मि।
(viii) अस्ति, घृतं गुडो दधि तण्डुलाश्च सर्वम् अस्ति।
उत्तरः
(iv), (i), (viii), (ii), (v), (vii), (ii), (vi)
II. (i) अलम् इदानीं भवान् अतिमात्रं सन्तप्तुम्।
(ii) सखे! ‘दानं श्रेयस्करम्’ इति प्रत्ययादेव ममार्थाः क्षीणाः जाताः।
(iii) योऽहं तत्र भवतः चारुदत्तस्य गेहेऽहोरात्रम् आकण्ठमात्रम् अशित्वा दिवसान् अनयम्।
(iv) न खलु अहम् नष्टां श्रियम् अनुशोचामि।
(v) किं भवान् अर्थविभवं चिन्तयति।
(vi) स एव इदानीम् अहं तत्र भवतः चारुदत्तस्य दरिद्रतया पारावतैः समम अन्यत्र भुक्त्वा तस्यावासं गच्छामि।
(vii) तदलम् भवतः सन्तापेन।
(viii) धनविनाशदुःखस्य पुनः पुनः चिन्त्यमानस्य नानाविधाः चिन्ताङ्कुराः प्रादुर्भवन्ति।
उत्तरः
(iii), (vi), (iv), (v), (ii), (viii), (vii), (i)
(ख) निम्न वाक्येषु ‘क’ खण्डस्य वाक्यैः सह ‘ख’ खण्डस्य वाक्यान् सम्यक् संयोजयत –
उत्तरः
(1) (iv)
(2) (v)
(3) (vi)
(4) (vii)
(5) (i)
(6) (iii)
(7) (viii)
(8) (ii)
8. निम्नवाक्येषु रेखाकितानां पदानां समुचितं शुद्धम् अर्थं चित्वा लिखत –
1. बुभुक्षया पुष्कर पत्र-पतित-जलबिन्दू इव चञ्चलायेते मे अक्षिणी।
(i) पुष्करतीर्थम्
(ii) कमलम्
(iii) पुष्कर पुष्पम्।
उत्तरः
(ii) कमलम्
2. सम्पन्नम् अशनम् अशितव्यं भविष्यति इति।
(i) नाशनम्
(ii) पानम्
(iii) भोजनम्
उत्तरः
(iii) भोजनम्
3. अहं भवतः चारुदत्तस्य दरिद्रतया पारावतैः समम् अन्यत्र भुक्त्वा गच्छामि।
(i) परजनैः
(ii) कपोतैः
(iii) पारंगत जनैः।
उत्तरः
(ii) कपोतैः
4. दारिद्र्यं खलु नाम मनस्विनः पुरुषस्य सोच्छवासं मरणम्।
(i) सजीवनम्
(ii) श्वासं विना
(iii) उच्छ्वास-सहितम्।
उत्तरः
(iii) उच्छ्वास-सहितम्।
5. दानेन विपन्नविभवस्य, बहुलपक्षचन्द्रस्य ज्योत्स्ना परिक्षय इव भवतः रमणीयोऽयं दरिद्रभावः।
(i) किरणस्य
(ii) शीतलतायाः
(iii) प्रकाशस्य।
उत्तरः
(i) किरणस्य
6. सखे! ‘दानं श्रेयस्करम्’ इति प्रत्ययादेव ममार्थाः क्षीणाः जाताः।
(i) अहितकरम्
(ii) कल्याणकरम्
(iii) आदरास्पदम्।
उत्तरः
(ii) कल्याणकरम्
7. विभवानुवशा भार्या समदुःखसुखो भवान्।
(i) भरणी
(ii) भर्ता
(iii) पत्नी।
उत्तरः
(iii) पत्नी।