CBSE Class 9 Hindi B Unseen Passages अपठित गद्यांश
अपठित बोध
‘अपठित’ शब्द अंग्रेज़ी भाषा के शब्द ‘unseen’ का समानार्थी है। इस शब्द की रचना ‘पाठ’ मूल शब्द में ‘अ’ उपसर्ग और ‘इत’ प्रत्यय जोड़कर बना है। इसका शाब्दिक अर्थ है-‘बिना पढ़ा हुआ।’ अर्थात गद्य या काव्य का ऐसा अंश जिसे पहले न पढ़ा गया हो। परीक्षा में अपठित गद्यांश और काव्यांश पर आधारित प्रश्न पूछे जाते हैं। इस तरह के प्रश्नों को पूछने का उद्देश्य छात्रों की समझ अभिव्यक्ति कौशल और भाषिक योग्यता का परख करना होता है।
अपठित गद्यांश
अपठित गद्यांश प्रश्नपत्र का वह अंश होता है जो पाठ्यक्रम में निर्धारित पुस्तकों से नहीं पूछा जाता है। यह अंश साहित्यिक पुस्तकों पत्र-पत्रिकाओं या समाचार-पत्रों से लिया जाता है। ऐसा गद्यांश भले ही निर्धारित पुस्तकों से हटकर लिया जाता है परंतु उसका स्तर, विषय-वस्तु और भाषा-शैली पाठ्यपुस्तकों जैसी ही होती है।
प्रायः छात्रों को अपठित अंश कठिन लगता है और वे प्रश्नों का सही उत्तर नहीं दे पाते हैं। इसका कारण अभ्यास की कमी है। अपठित गद्यांश को बार-बार हल करने स
- भाषा-ज्ञान बढ़ता है।
- नए-नए शब्दों, मुहावरों तथा वाक्य रचना का ज्ञान होता है।
- शब्द-भंडार में वृद्धि होती है, इससे भाषिक योग्यता बढ़ती है।
- प्रसंगानुसार शब्दों के अनेक अर्थ तथा अलग-अलग प्रयोग से परिचित होते हैं।
- गद्यांश के मूलभाव को समझकर अपने शब्दों में व्यक्त करने की दक्षता बढ़ती है। इससे हमारे अभिव्यक्ति कौशल में वृद्धि होती है।
- भाषिक योग्यता में वृद्धि होती है।
अपठित गद्यांश के प्रश्नों को कैसे हल करें
अपठित गदयांश पर आधारित प्रश्नों को हल करते समय निम्नलिखित तथ्यों का ध्यान रखना चाहिए
- गद्यांश को एक बार सरसरी दृष्टि से पढ़ लेना चाहिए।
- पहली बार में समझ में न आए अंशों, शब्दों, वाक्यों को गहनतापूर्वक पढ़ना चाहिए।
- गद्यांश का मूलभाव अवश्य समझना चाहिए।
- यदि कुछ शब्दों के अर्थ अब भी समझ में नहीं आते हों, तो उनका अर्थ गद्यांश के प्रसंग में जानने का प्रयास करना चाहिए। अनुमानित अर्थ को गद्यांश के अर्थ से मिलाने का प्रयास करना चाहिए।
- गद्यांश में आए व्याकरण की दृष्टि से कुछ महत्त्वपूर्ण शब्दों को रेखांकित कर लेना चाहिए।
- अब प्रश्नों को पढ़कर संभावित उत्तर गद्यांश में खोजने का प्रयास करना चाहिए।
- शीर्षक समूचे गद्यांश का प्रतिनिधित्व करता हुआ कम से कम एवं सटीक शब्दों में होना चाहिए।
- प्रतीकात्मक शब्दों एवं रेखांकित अंशों की व्याख्या करते समय विशेष ध्यान देना चाहिए।
- मूल भाव या संदेश संबंधी प्रश्नों का जवाब पूरे गद्यांश पर आधारित होना चाहिए।
- प्रश्नों का उत्तर देते समय यथासंभव अपनी भाषा का ध्यान रखना चाहिए।
- उत्तर की भाषा सरल, सुबोध और प्रवाहमयी होनी चाहिए।
- प्रश्नों का जवाब गद्यांश पर ही आधारित होना चाहिए, आपके अपने विचार या राय से नहीं।
- अति लघूत्तरात्मक तथा लघूत्तरात्मक प्रश्नों के उत्तरों की शब्द सीमा अलग-अलग होती है, इसका विशेष ध्यान रखना चाहिए।
- प्रश्नों का जवाब सटीक शब्दों में देना चाहिए, घुमा-फिराकर जवाब देने का प्रयास नहीं करना चाहिए।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
प्रश्नः 1.
भारत किस काल को आज भी ललचाई दृष्टि से देखता है?
उत्तर:
भारत वैदिक काल को आज भी ललचाई दृष्टि से देखता है।
प्रश्नः 2.
‘स्वर्णकाल’ का आशय क्या है? इसे किसका काल माना जाता है?
उत्तर:
स्वर्णकाल’ का आशय उस काल से है, जिसमें सभी सुख-शांति से रहते हों तथा आर्थिक, धार्मिक और साहित्यिक उन्नति अपने चरम पर हो। इसे वैदिक आर्यों का काल माना जाता है।
प्रश्नः 3.
बौद्ध काल आज के आधुनिकता आंदोलन के समान क्यों था?
उत्तर:
बौद्ध काल और आधुनिकता आंदोलन की अनेक बातों में समानता थी; जैसे-जाति प्रथा को महत्त्व न देना, मनुष्य को जाति से नहीं बल्कि कर्म के आधार पर श्रेष्ठ या नीच समझना, नारियों को पुरुषों के समान ही अधिकार देना आदि
प्रश्नः 4.
बुद्ध की बातों का प्रभाव किस तरह दृष्टिगोचर होता है?
उत्तर:
आज भी बदध के विचारों से प्रभावित लोग हैं जो जाति प्रथा के विरोधी हैं। वे स्त्रियों को पुरुषों के समान ही मानने के पक्षधर हैं तथा वे मनुष्य की श्रेष्ठता का आधार उसका कर्म मानते हैं। यह बुद्ध की बातों का ही प्रभाव है।
प्रश्नः 5.
संन्यास की संस्था को समाज विरोधिनी क्यों कहा गया है?
उत्तर:
संन्यास की संस्था समाज विरोधी इसलिए है क्योंकि यह समाज के हित के भाव से काम नहीं करती है। यह हर आयु वर्ग के लोगों को उत्पादन कार्यों से हटाकर संन्यासी बनाती है। संन्यासी बनते ही व्यक्ति को समाज और देश की चिंता नहीं रह जाती है।
उदाहरण (उत्तर सहित)
निम्नलिखित गद्यांशों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और पूछे गए प्रश्नों के उत्तर गद्यांश के आधार पर लिखिए-
1. जिस विद्यार्थी ने समय की कीमत समझ ली, वह सफलता को अवश्य प्राप्त करता है। प्रत्येक विद्यार्थी को अपनी दिनचर्या
की समय-सारिणी अथवा तालिका बनाकर उसका पूरी दृढ़ता से पालन करना चाहिए। जिस विद्यार्थी ने समय का सही उपयोग करना सीख लिया, उसके लिए कोई भी कार्य असंभव नहीं है। कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो किसी कार्य के पूरा न होने पर समय की दुहाई दिया करते हैं। वास्तव में सच्चाई इसके विपरीत होती है। अपनी अकर्मण्यता और आलस्य को वे समय की कमी के बहाने छिपाते हैं। कुछ लोगों को अकर्मण्य रहकर निठल्ले समय बिताना अच्छा लगता है। ऐसे लोग केवल बातूनी होते हैं।
दुनिया के सफलतम व्यक्तियों ने सदैव कार्य-व्यस्तता में जीवन बिताया है। उनकी सफलता का रहस्य समय का सदुपयोग रहा है। दुनिया में अथवा प्रकृति में हर वस्तु का समय निश्चित है।। बीत जाने पर कार्य फलप्रद नहीं होता। सूरज यदि समय पर उदय होना व अस्त होना बंद कर दे, वर्षा यदि समय पर न हो, किसान समय पर अनाज न बोए, तो कैसी स्थिति हो जाएगी? ठीक इसी प्रकार यदि विद्यार्थी समय की कीमत नहीं समझेगा तो वह सफलता नहीं प्राप्त कर सकता। परीक्षा के समय यदि विद्यार्थी परिश्रम नहीं करेगा और उस दिन आराम करेगा तो उसे वांछित सफलता नहीं मिल सकती।
प्रश्नः 1.
सफलता पाने के लिए विद्यार्थी को क्या आवश्यक है ?
उत्तर:
सफलता पाने के लिए विद्यार्थी को यह आवश्यक है कि वह समय की कीमत पहचाने।
प्रश्नः 2.
कुछ विद्यार्थी काम न पूरा होने पर क्या बहाना बनाते हैं ? इसकी वास्तविकता क्या होती है?
उत्तर:
कुछ विद्यार्थी काम न होने पर समय की कमी होने का बहाना बनाते हैं, जबकि वास्तविकता इसके बिल्कुल विपरीत होती है। वे अपने आलस्य को समय की कमी बताकर छिपाते हैं।
प्रश्नः 3.
बातूनी और सफल व्यक्तियों में क्या अंतर होता है?
उत्तर:
बातूनी और सफल व्यक्तियों में यह अंतर होता है कि बातूनी अकर्मण्य रहकर निठल्ले समय बिताते हैं, जबकि सफल व्यक्ति सदैव काम की व्यस्तता के बीच अपना समय बिताते हैं।
प्रश्नः 4.
प्रकृति द्वारा समय के सदुपयोग के दो उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
प्रकृति द्वारा समय के सदुपयोग के दो उदाहरण हैं-
(क) सूरज का समय पर निकलना और छिप जाना।
(ख) समय पर बादलों का बरसना।
प्रश्नः 5.
विद्यार्थी द्वारा समय की कीमत न समझने से क्या हानियाँ हैं ?
उत्तर:
विद्यार्थी द्वारा समय की कीमत न समझने से
(क) वह वांछित सफलता नहीं प्राप्त कर सकेगा।
(ख) वह आलसी बन जाएगा।
2. सदियों पूर्व, अब लिटिल अंदमान और कार-निकोबार आपस में जुड़े हुए थे, तब वहाँ एक सुंदर-सा गाँव था। पास में एक सुंदर और शक्तिशाली युवक रहा करता था। उसका नाम था तताँरा। निकोबारी उसे बेहद प्रेम करते थे। तताँरा एक नेक और मददगार व्यक्ति था। सदैव दूसरों की सहायता के लिए तत्पर रहता। अपने गाँववालों को ही नहीं, अपितु समूचे द्वीपवासियों की सेवा करना अपना परम कर्तव्य समझता था। उसके इस त्याग की वजह से वह चर्चित था। सभी उसका आदर करते। वक्त-मुसीबत में उसे स्मरण करते और वह भागा-भागा वहाँ पहुँच जाता। दूसरे गाँवों में भी पर्व-त्योहारों के समय उसे विशेष रूप से आमंत्रित किया जाता।
उसका व्यक्तित्व तो आकर्षक था ही, साथ ही आत्मीय स्वभाव की वजह से लोग उसके करीब रहना चाहते। पारंपरिक पोशाक के साथ वह अपनी कमर में सदैव एक लकड़ी की तलवार बाँधे रहता। लोगों का मत था, बावजूद लकड़ी की होने पर, उस तलवार में अद्भुत दैवीय शक्ति थी। तताँरा अपनी तलवार को कभी अलग न होने देता। उसका दूसरों के सामने उपयोग भी न करता। किंतु उसके चर्चित साहसिक कारनामों के कारण लोग-बाग तलवार में अद्भुत शक्ति का होना मानते थे। तताँरा की तलवार एक विलक्षण रहस्य थी।
प्रश्नः 1.
पहले अंडमान-निकोबार की क्या स्थिति थी?
उत्तर:
बहुत पहले अंडमान और निकोबार एक ही द्वीप समूह थे। वे अलग नहीं हुए थे।
प्रश्नः 2.
तताँरा की लोकप्रियता का कारण क्या था?
उत्तर:
तताँरा की लोकप्रियता उसका नेक और मददगार स्वभाव का होना था। वह दूसरों की मदद के लिए सदैव तत्पर रहता था। वह इतना मददगार था कि अपने गाँव के अलावा समूचे द्वीपवासियों की सेवा के लिए तत्पर रहता था।
प्रश्नः 3.
लोग तताँरा का साथ क्यों चाहते थे?
उत्तर:
लोग तताँरा का साथ इसलिए चाहते थे क्योंकि उसका व्यक्तित्व अत्यंत आकर्षक था। इसके अलावा उसका आत्मीय स्वभाव लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर लेता था।
प्रश्नः 4.
तताँरा की पोशाक में सबसे विचित्र बात क्या थी?
उत्तर:
तताँरा अपनी पारंपरिक पोशाक पहनने के बाद कमर से लकड़ी की एक तलवार बाँधे रखता था। लोग मानते थे कि लकड़ी की इस तलवार में अद्भुत दैवीय शक्ति थी।
प्रश्नः 5.
लोग तताँरा के साहसिक कारनामों का कारण मानते थे?
उत्तर:
लोग तताँरा के अद्भुत साहसिक कारनामों का कारण तलवार की अद्भुत शक्ति को मानते थे। तताँरा इस तलवार को खुद से अलग न करता और दूसरों के सामने उसका प्रयोग नहीं करता था।
3. कविवर रवींद्रनाथ टैगोर को नोबल पुरस्कार मिला। देश-विदेश से बधाई के संदेश आए। उनके पड़ोसी ने उन्हें बधाई नहीं दी। टैगोर, को यह व्यवहार अखरा, लेकिन उन्होंने उसे भुलाने की कोशिश की, पर भुला नहीं पाए। बार-बार उनके सामने उसका चेहरा आ जाता था। वह जब-जब उसके बारे में सोचते क्रोध से भर जाते। अगली सुबह वह समुद्र के किनारे टहल रहे थे। सूर्य की किरणों में सागर चाँदी-सा चमक रहा था। तभी उनकी नज़र करीब ही पानी से भरे गड्ढे पर पडी। वहाँ भी सूर्य की किरणें बराबर पड़ रही थीं। तभी उनको ख्याल आया कि सूर्य ने तो सब पर बराबर किरणें फैलाई हैं।
उसने तो समुद्र और गड्ढे में कोई अंतर नहीं किया। टैगोर को अपनी गलती का अहसास हुआ कि यदि दूसरा अपनी उदारता छोड़ रहा है तो वे क्यों छोड़ें? तत्काल उन्होंने उसके घर जाकर उनके चरण-स्पर्श किए। उसकी आँखें गीली हो गईं। वह बोला कि आप जैसे देवतुल्य को यह पुरस्कार मिलना ही चाहिए था। यह कहकर उसने टैगोर के चरण-स्पर्श किए। दोनों के बीच की दूरी मिट गई।
प्रश्नः 1.
रवींद्रनाथ को पड़ोसी का व्यवहार क्यों अखरा?
उत्तर:
कविवर रवींद्रनाथ को नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्हें चारों ओर से बधाई-संदेश मिले पर पड़ोसी ने उन्हें बधाई नहीं दी, इसलिए उन्हें पड़ोसी का व्यवहार अखरा।
प्रश्नः 2.
पड़ोसी के व्यवहार से टैगोर का व्यवहार किस प्रकार प्रभावित हो रहा था?
उत्तर:
अपने पड़ोसी के व्यवहार के कारण टैगोर उसे बार-बार भूलना चाहते थे, पर भूल नहीं पा रहे थे। पड़ोसी का चेहरा बार-बार उनकी आँखों के सामने घूम जाता, जिससे वे क्रोधित हो उठते थे।
प्रश्नः 3.
टैगोर को अपनी गलती का अहसास कब हुआ?
उत्तर:
टैगोर ने समुद्र तट पर टहलते हुए देखा कि सूर्य सागर और पानी के छोटे गड्ढे का भेदभाव किए बिना अपनी किरणें समान रूप से बिखेर रहा है। यह देख उन्हें अपनी गलती का अहसास हो गया।
प्रश्नः 4.
पड़ोसी ने अपने व्यवहार की भूल किस प्रकार सुधारी?
उत्तर:
जब टैगोर अपने पड़ोसी के घर गए और उसके पैर छुए तो वह बोला कि आप जैसे देवतुल्य को यह पुरस्कार मिलना ही चाहिए था। उसने भी टैगोर के पैर छूकर अपनी भूल का सुधार किया।
प्रश्नः 5.
गद्यांश से आपको क्या शिक्षा मिलती है?
उत्तर:
गद्यांश से हमें यह शिक्षा मिलती है कि क्रोध सद्गुणों का नाशक है। अत: हमें क्रोध नहीं करना चाहिए।
4. हँसी शरीर के स्वास्थ्य को शुभ संवाद देने वाली है। वह एक साथ ही शरीर और मन को प्रसन्न करती है। पाचन-शक्ति बढ़ाती है, रक्त को चलाती है और अधिक पसीना लाती है। हँसी एक शक्तिशाली दवा है। एक डॉक्टर कहता है कि वह जीवन की मीठी मदिरा है। डॉक्टर यूंड कहता है कि आनंद से बढ़कर बहुमूल्य वस्तु मनुष्य के पास और नहीं है। कारलाइल एक राजकुमार था। संसार त्यागी हो गया था, वह कहता है कि जो जी से हँसता है, वह कभी बुरा नहीं होता। जी से हँसो, तुम्हें अच्छा लगेगा।
अपने मित्र को हँसाओ, वह अधिक प्रसन्न होगा। शत्रु को हँसाओ तुम से कम घृणा करेगा। एक अनजान को हँसाओ, उसका दुख घटेगा। निराश को हँसाओ, उसकी आशा बढ़ेगी। एक बूढ़े को हँसाओ, वह अपने को जवान समझने लगेगा। एक बालक को हँसाओ उसके स्वास्थ्य में वृद्धि होगी। वह प्रसन्न और प्यारा बालक बनेगा। पर हमारे जीवन का उद्देश्य केवल हँसी ही नहीं है, हमको बहुत काम करने हैं। यद्यपि उन कामों में, कष्टों में और चिंताओं में एक सुंदर आंतरिक हँसी, बड़ी प्यारी वस्तु भगवान ने दी है।
प्रश्नः 1.
गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर:
शीर्षक-जीवन की सबसे प्यारी वस्तु-हँसी।
प्रश्नः 2
हँसी के विषय में पुराने लोगों का कहना क्या था?
उत्तर:
हँसी के विषय में पुराने लोगों का कहना था कि हँसी बहुत से कला-कौशलों से अच्छी है। जो व्यक्ति जितना ही हँसता है, उसकी आयु उतनी ही बढ़ती है।
प्रश्नः 3.
‘जिंदगी जिंदादिली का नाम है’-का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
‘जिंदगी जिंदादिली का नाम है’ का आशय है कि प्रसन्नतापूर्वक हँसी-खुशी जीने का नाम ही जिंदगी है। रो-धोकर जीवन बिताने को ज़िंदगी नहीं कहा जा सकता है।
प्रश्नः 4.
गद्यांश का fgkjhkjfh स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
गद्यांश का मूलकथ्य यह है कि हँसी जीवन के लिए अतिआवश्यक है। हँसने से रोग दूर होते हैं और आयु बढ़ती है। हसी-खुशी जीवन बिताने का नाम ही जिंदगी है।
प्रश्नः 5.
आनंद की तुलना किससे की गई है और क्यों?
उत्तर:
आनंद की तुलना इंजन से की गई है, क्योंकि आनंद रूपी शक्तिशाली इंजन शोक और दुख की दीवारों को ढहा देता है जिससे मनुष्य का चित्त प्रसन्न हो जाता है।
5. हमारे समाज में बहुत से लोग भाग्यवादी हैं। ऐसे लोग समाज की प्रगति में बाधक होते हैं। आज तक किसी भाग्यवादी ने समाज में कोई महान कार्य नहीं किया। बड़ी-बड़ी खोजें, बड़े-बड़े आविष्कार और बड़े-बड़े निर्माण श्रम के द्वारा ही संपन्न हो सके हैं। हमारे साधन, हमारी प्रतिभा श्रम के बिना व्यर्थ है। श्रम करके ही प्रतिभासंपन्न कलाकारों ने देश को विभिन्न कलाओं से सुसज्जित किया जो आज हमारी धरोहर हैं।
जब हम अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए श्रम करते हैं, तो हमारे मन को एक ऐसी तृप्ति अनुभव होती है, ऐसा आनंद मिलता है, जिसका वर्णन शब्दों से परे है। अतः हमें श्रम करना चाहिए। श्रम करने वाले लोग दीर्घजीवी होते हैं, वे समाज का उन्नयन करते हैं, वे देश का उत्थान कर विश्व में अपना व अपने देश का नाम अमर कर जाते हैं।
प्रश्नः 1.
भाग्यवादी लोग समाज की प्रगति में किस प्रकार बाधक होते हैं ?
उत्तर:
भाग्यवादी लोग भाग्य के सहारे रहकर परिश्रम से जी चुराते हैं। उनकी भाग्यवादिता दसरों में भी अकर्मण्यता पैदा करती है। वे समाज के लिए कोई महान कार्य नहीं करते हैं, इसलिए ऐसे लोग समाज की प्रगति में बाधक होते हैं।
प्रश्नः 2.
हमारे साधन कब व्यर्थ साबित होते हैं ?
उत्तर:
जब तक व्यक्ति में परिश्रम करने के प्रति लगन न हो, किसी काम को करने की प्रतिभा न हो, तब तक व्यक्ति काम में मन नहीं लगाता। अतः श्रम करने की इच्छाशक्ति और प्रतिभा के अभाव में साधन बेकार हो जाते हैं।
प्रश्नः 3.
प्रतिभासंपन्न कलाकारों की सफलता का रहस्य क्या है?
उत्तर:
प्रतिभासंपन्न कलाकारों को सफलता का रहस्य उनकी जन्मजात प्रतिभा तो है ही, इसके अलावा उनका परिश्रमी स्वभाव भी है, जिसके कारण वे काम में जुटे रहते हैं।
प्रश्नः 4.
हमें श्रम क्यों करना चाहिए?
उत्तर:
श्रम करने से व्यक्ति को अवर्णनीय आनंद मिलता है, हमारे मन को तृप्ति का अनुभव होता है तथा श्रम करके हम समाज की उन्नति में अपना अमूल्य योगदान देते हैं, इसलिए हमें श्रम करना चाहिए।
प्रश्नः 5.
उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर:
शीर्षक-श्रम की महत्ता या उन्नति का मूल-परिश्रम।
6. ग्लोबल वार्मिंग की समस्या निरंतर बढ़ती जा रही है। इस समस्या का कारण मनुष्य ही है। आने वाली पीढी चैन से सांस लेने के बजाय अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष करती नज़र आएगी। 21 ऐसे औद्योगिक देश हैं, जो वायुमंडल में लगभग 80 प्रतिशत कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ते हैं, जिनमें अमेरिका सर्वोपरि है।
बढ़ते तापमान का दूरगामी परिणाम हमारे देश की जीवन रेखा कहलाने वाले मानसून पर दिखाई पड़ने लगा है। अब पता नहीं चलता कि वर्षा कब आएगी और कितने समय रहेगी। तापमान बढ़ने से हिमालयी ग्लेशियरों के पिघलने की दर तेज़ी से बढ़ रही है। इससे नदियों में ज़्यादा पानी आएगा जो बाढ़ की मुसीबत पैदा करेगा और फिर नदियाँ हमेशा के लिए सूख जाएंगी। गंगा को जीवनदान देने वाला गंगोत्री ग्लेशियर 30 मीटर सालाना की दर से सिकुड़ता जा रहा है।
बरफ़ पिघलने से स्वाभाविक रूप से समुद्र के जल स्तर में वृद्धि होने लगी है, जिसकी वजह से कई टापुओं और विभिन्न तटीय देशों के डूबने का खतरा बना हुआ है। जल स्तर में बढ़ोतरी के साथ-साथ समुद्रीय जल का तापमान भी बढ़ता जा रहा है। भौगोलिक परिवर्तन के साथ-साथ ग्लोबल वार्मिंग से जैव मंडल भी काफ़ी प्रभावित हो रहा है। न सिर्फ स्थलीय और जलीय जीव-जंतुओं में बल्कि वनस्पतियों में भी कई परिवर्तन दिखाई दे रहे हैं।
प्रश्नः 1.
‘ग्लोबल वार्मिंग’ क्या है? इसे समस्या क्यों कहा गया है?
उत्तर:
‘ग्लोबल वार्मिंग’ का अर्थ है-विश्वस्तर पर पृथ्वी के तापमान में आश्चर्यजनक एवं अप्रत्याशित वृद्धि। इसे इसलिए समस्या कहा गया है, क्योंकि यह जीवों के लिए खतरा बनती जा रही है। इसका दुष्प्रभाव पूरी दुनिया को झेलना पड़ रहा है।
प्रश्नः 2.
‘ग्लोबल वार्मिंग की समस्या’ का कारण मनुष्य क्यों है?
उत्तर:
‘ग्लोबल वार्मिंग’ की समस्या का कारण मनुष्य इसलिए है, क्योंकि उसने विकास के नाम पर वनों को नष्ट किया, औद्योगिक इकाइयों की, स्थापना की जो भारी मात्रा में जहरीली गैसों का उत्सर्जन कर रहे हैं।
प्रश्नः 3.
बढ़ते तापमान के कारण मानसून किस तरह प्रभावित हुआ है?
उत्तर:
बढ़ते तापमान के कारण मानसून के आने-जाने का समय अनिश्चित हो गया है। वर्षा कब होगी, कितने समय तक वर्षा ऋतु रहेगी, इसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है। इससे प्राकृतिक संतुलन डगमगा गया है।
प्रश्नः 4.
ग्लोबल वार्मिंग के कारण ग्लेशियर मनुष्य के लिए हानिकारक क्यों प्रतीत होने लगे हैं?
उत्तर:
ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघलने लगे हैं। इससे नदियों में भारी मात्रा में आया पानी बाढ़ लाएगी और फिर नदियाँ सदा के लिए सूखी हो जाएंगी।
प्रश्नः 5.
बरफ़ पिघलने का समुद्र पर क्या असर होगा?
उत्तर:
बरफ़ पिघलने से समुद्री जलस्तर बढ़ेगा जिससे कई टापुओं और तटीय देशों के डूबने का खतरा उत्पन्न हो जाएगा।
7. व्याकरण भाषा के मौखिक और लिखित दोनों ही रूपों का अध्ययन कराता है। यद्यपि इस प्रकार के अध्ययन का क्षेत्र मौखिक भाषा ही रहती है, तथापि भाषा के लिखित रूप को भी अध्ययन का विषय बनाया जाता है। भाषा और लिपि के परस्पर संबंध से कभी-कभी यह भ्रांति भी फैल जाती है कि दोनों अभिन्न हैं। वस्तुतः भाषा लिपि के बिना भी रह सकती है।
आदिम जातियों की नई भाषाएँ केवल मौखिक रूप में ही व्यवहृत हैं, उनके पास कोई लिपि नहीं है। पर लिपि भाषा के बिना नहीं रह सकती। किसी भी भाषा विशेष के लिए परंपरा के आधार पर एक विशेष लिपि रूढ़ि हो जाती है। जैसे हिंदी के लिए देवनागरी लिपि। लिखित भाषा स्थायी होती है। इसी के आधार पर मनुष्य की उन्नति और विकास यात्रा का भी ज्ञान होता है। इसीलिए भाषा को मानव की सांस्कृतिक चेतना की संवाहिका भी कहा जाता है। भाषा और समाज परस्पर अभिन्न माने जाते हैं, क्योंकि भाषा के अभाव में समाज संभव ही नहीं हो सकता है। समाज में परस्पर अभिव्यक्ति का साधन भाषा ही होती है।
प्रश्नः 1.
भाषा के लिए व्याकरण की उपयोगिता क्या है?
उत्तर:
भाषा के लिए व्याकरण की उपयोगिता यह है कि, “व्याकरण भाषा के लिखित और मौखिक दोनों रूपों का अध्ययन कराता है।”
प्रश्नः 2.
भाषा और लिपि भिन्न हैं, कैसे?
उत्तर:
भाषा और लिपि इस प्रकार भिन्न हैं कि भाषा लिपि के बिना भी रह सकती है, जैसे आदिम जातियों की भाषाएँ जिनके पास लिपि नहीं है, पर लिपि के लिए भाषा का होना अत्यावश्यक है।
प्रश्नः 3.
लिखित भाषा का महत्त्व स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
लिखित भाषा स्थायी होती है। इससे मनुष्य की उन्नति और विकास की यात्रा आगे बढ़ती है। इसके माध्यम से ज्ञान को आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचाया जाता है। यह सांस्कृतिक चेतना को आगे बढ़ाती है।
प्रश्नः 4.
भाषा और समाज का क्या संबंध है?
उत्तर:
भाषा और लिपि का अत्यंत घनिष्ठ संबंध है। भाषा के बिना समाज की संकल्पना नहीं की जा सकती है। समाज में ___एक-दूसरे से बातचीत करने के लिए भाषा ही माध्यम बनती है।
प्रश्नः 5.
हिंदी भाषा की लिपि का नाम बताइए।
उत्तर:
हिंदी की लिपि देवनागरी है।
8. एक ऋषि ने अपने शिष्य को उपदेश देते हुए कहा था-हे पुत्र! तू माता की आज्ञा का पालन कर। तू माँ को अपने दुराचरण से शोक संतप्त मत कर। माँ को सदा अपने निकट रख और उसके सामीप्य में रहकर शुद्ध मन और आचरण से उसकी सेवा कर। भारतीय संस्कृति में माता-पिता के चरणों में स्वर्ग होने की बात कही गई है। वहाँ कहा गया है कि जैसे भूमि के समान कोई दान नहीं, सत्य के समान कोई धर्म नहीं वैसे ही माता-पिता की सेवा के समान कोई पुण्य नहीं है। माता-पिता ही देवता हैं।
सबसे पहले उनकी पूजा करनी चाहिए। किंतु नई पीढ़ी माता-पिता की सेवा का अर्थ भूल गई है। वृद्ध माता-पिता वृद्धाश्रम में जीवन बिताने को विवश हो गए हैं। यह ठीक है कि नई पीढ़ी का अपना अलग जीवन है, जीवन के प्रति उनका अपना दृष्टिकोण है, किंतु माता-पिता का ध्यान रखना भी तो उनका नैतिक और सामाजिक दायित्व है। वृद्ध माता-पिता को भव्य भवन या मूल्यवान संसाधनों की आवश्यकता नहीं होती। सुख-सुविधा के भौतिक साधनों से जो सुख प्राप्त होता है वह बाहरी और क्षणिक होता है। उनको तो अपनों से निकटता चाहिए और अपनत्व चाहिए। इसी से उन्हें आंतरिक खुशी और संतोष मिलेगा। वृद्ध माता-पिता को यह सुख और संतोष देना-हज़ारों वर्षों की तपस्या से भी बढ़कर है।
प्रश्नः 1.
ऋषि ने अपने शिष्य को क्या उपदेश दिया?
उत्तर:
ऋषि ने अपने शिष्य को माता की आज्ञा मानने, उन्हें अपने दुराचरण से दुखी न करने और अपने निकट रखकर शुद्ध मन और आचरण से सेवा करने का उपदेश दिया।
प्रश्नः 2.
भारतीय संस्कृति की किस विशेषता का गद्यांश में वर्णन है?
उत्तर:
भारतीय संस्कृति की उस विशेषता का वर्णन है, जिसमें माता-पिता के चरणों में स्वर्ग होने की बात कही गई है। माता-पिता की सेवा के समान न कोई पुण्य है और न उनके समान कोई देवता, ऐसा भारतीय संस्कृति में माना गया है।
प्रश्नः 3.
वृद्ध माता-पिता अपनी संतान से क्या अपेक्षा करते हैं ?
उत्तर:
वृद्ध माता-पिता अपनी संतान से भव्य भवन या मूल्यवान साधन नहीं चाहते हैं। उन्हें अपनी संतान से निकटता की अपेक्षा होती है।
प्रश्नः 4.
नई पीढ़ी को अपने अंदर कौन-सा मानवीय मूल्य प्रगाढ़ करने की आवश्यकता है?
उत्तर:
नई पीढ़ी को अपने अंदर वृद्ध माता-पिता की सेवा करने, उनका ध्यान रखने जैसे मानवीय मूल्य प्रगाढ़ करने की आवश्यकता है।
प्रश्नः 5.
किस सुख को क्षणिक तथा किस सुख को तपस्या से बढ़कर बताया गया है?
उत्तर:
सुख-सुविधा के भौतिक साधनों से प्राप्त सुख क्षणिक तथा माता-पिता को आंतरिक खुशी और संतोष देना तपस्या से भी बढ़कर है।
9. उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ से जब पूछा गया कि आपकी शहनाई में बनारस किस तरह मौजूद है? उनका जवाब था-“हमने कुछ नहीं पैदा किया है। जो हो गया, वह उसका करम है। हाँ, जो लेकर हम चले हैं अपनी शहनाई में, वह बनारस का अंग है। किसी भी चीज़ में जल्दबाज़ी नहीं करते, बनारसवाले। बड़े इत्मीनान से बोल लेकर चलते हैं। एक महाराज जी थे, वे बालाजी घाट के पास मंदिर में रोज सुबह की आरती में करीब साढ़े चार-पाँच बजे बड़ा सुंदर पद गाते थे : ‘किरपा करो महाराज मो पे।’
हम रियाज़ के लिए जाएँ वहाँ, तो रोज सुनते थे। फिर ठीक वही बंदिश, जब वह गाकर बंद करें, तब अपनी शहनाई से निकालते थे। तो वही ठेठपन आया हमारे बजाने में। मंदिर का घंटा-घड़ियाल भी कानों में पड़ता था और गंगा-पुजैया का बियाह, सहाना भी गज़ब जान पड़ता था। हम आज भी जितना कर पाते हैं वो सब यही बनारस की देन है। उसकी गड़बड़ी भी है अगर कुछ तो उसमें भी एक अलग अंदाज़ है। सबकी अपनी-अपनी खूबी और चलन-बढ़त का अलग-अलग अंदाज़ होता है। अब जब हम जिंदगीभर यही मंगलागौरी और पक्का महाल में रियाज़ करते जवान हुए हों, तो कहीं-न-कहीं से बनारस का शहद तो ‘टपकेगा ही हमारी शहनाई में’।
प्रश्नः 1.
‘बनारस का शहद’ का क्या आशय है ? उदाहरण दिया गया है ?
उत्तर:
‘बनारस का शहद’ का आशय बनारस की विशेषताओं से है।
प्रश्नः 2.
बनारस वालों की क्या विशेषता बताई गई है? इस संबंध में किसका उदाहरण दिया गया है?
उत्तर:
बनारस वालों की यह विशेषता बताई गई है कि वे किसी काम में जल्दबाज़ी नहीं करते हैं। यहाँ के कलाकार गायकी के बोलों को बड़े इत्मीनान से लेकर चलते हैं। इस संबंध में आरती गाने वाले महाराज का उदाहरण दिया गया है।
प्रश्नः 3.
महाराज जी कौन थे? उनके किस कार्य ने बिस्मिल्ला खाँ को प्रभावित किया?
उत्तर:
महाराज जी बालाजी घाट के पास बने मंदिर के पुजारी थे। वे सवेरे-सवेरे आरती के समय ‘किरपा करो महाराज मो पे’ गाया करते थे। बालाजी घाट पर रियाज़ के लिए जाने वाले बिस्मिल्ला खाँ को ‘महाराज जी’ के गायन ने प्रभावित किया।
प्रश्नः 4.
बनारस और गंगा ने बिस्मिल्ला खाँ के शहनाई वादन को किस तरह प्रभावित किया?
उत्तर:
बिस्मिल्ला खाँ बनारस में गंगा के किनारे बने बालाजी के मंदिर के पास रियाज के लिए जाते थे। मंदिर में गाई जाने वाली आरती को वे अपनी शहनाई से निकालते थे। मंदिर का घंटा-घड़ियाल, गंगा-पुजैया का विवाह, सहाना उन्होंने वहीं सुना और सीखा।
प्रश्नः 5.
बिस्मिल्ला खाँ की शहनाई में बनारस का शहद टपकने का क्या कारण है?
उत्तर:
बिस्मिल्ला खाँ ने बनारस में शहनाई बजाने का रियाज़ किया। वहीं विभिन्न रागों को सीखा। यहीं के घाटों पर, मंगलागौरी और पक्का महाल में रियाज करते हुए जवान हुए हैं, इसी कारण उनकी शहनाई से बनारस का शहद टपकता है।
10. मैंने ‘अतिथि’ शब्द के समानांतर एक दूसरा शब्द गढ़ा है- असमय’। अतिथि का अर्थ है जिसकी तिथि न हो, अर्थात् आने का दिन निश्चित न हो, मतलब कि जो बिना पूर्व सूचना के अकस्मात् टपक पड़े। ठीक उसी तरह ‘असमय’ का अर्थ कीजिए कि जिसका समय न हो जब चाहे आ जाए और आने में ही नहीं जाने में भी ‘असमय’ हो।
तात्पर्य की कब तक रहेगा, कब जाएगा इसका कोई ठिकाना नहीं। मैं अतिथियों से नहीं घबराता पर ‘असमय’ से ज़रूर काँपता हूँ, कारण कि मैं कामकाजी आदमी हूँ। इस युग में कौन कामकाजी नहीं है। जिसको देखिए वही अस्त-व्यस्तता के मारे परेशान है। आजकल बड़प्पन दिखाने के जो कई साधन हैं, उनमें एक यह कहना भी कि ‘क्या बताऊँ साहब, खाना खाने तक की फुरसत नहीं मिलती, नींद और चैन हराम है।’
बात बहुत गलत हो, ऐसा नहीं। जिसको देखिए, चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही हैं, नाक की सीध में दौड़ा जा रहा है। जिधर नज़र डालिए उधर ही भाग-दौड़। आदमी ने मशीनें इज़ाद की, आराम के लिए, मगर मकड़े की तरह वह उन मशीनों में उलझकर अपनी आज़ादी खो बैठा, अपनी आदमियत खो बैठा। बाल-बच्चों के बीच इत्मीनान से बैठने का, दिल बहलाने का समय नहीं मिलता।
प्रश्नः 1.
‘अतिथि’ और ‘असमय’ में क्या समानता है ?
उत्तर:
अतिथि का अर्थ है-बिना बताए या पूर्व सूचना के आने वाला। उसी प्रकार ‘असमय’ का अर्थ है-जिसके न आने का कोई समय हो और न जाने का।
प्रश्नः 2.
लेखक ‘असमय’ से क्यों काँपता है?
उत्तर:
लेखक असमय से इसलिए काँपता है क्योंकि जिस प्रकार ऐसे लोगों के आने का समय अनिश्चित होता है. उसी प्रकार एक बार आने पर ये कब तक रुके रहेंगे, कुछ निश्चित नहीं है। उनके साथ इतना समय देने की लेखक को फुरसत नहीं है।
प्रश्नः 3.
आजकल लोग किस प्रकार बड़प्पन दिखाते हैं ?
उत्तर:
आज लोग अपनी व्यस्तता बताकर बड़प्पन दिखाते हैं। वे कहते हैं कि “क्या बताऊँ साहब, खाना खाने तक ही फुरसत नहीं मिलती, नींद और चैन हराम है।”
प्रश्नः 4.
मशीनों ने मनुष्य की जिंदगी को किस प्रकार प्रभावित किया है ?
उत्तर:
मनुष्य ने मशीनों की खोज आराम पाने के लिए, समय की बचत करने के लिए की थी, पर ज़्यादा धन कमाने के चक्कर में उनमें उलझकर अपना चैन खो बैठा है।
प्रश्नः 5.
‘इज़ाद’ और ‘इत्मीनान’ शब्दों के अर्थ लिखिए।
उत्तर:
इज़ाद-खोज, इत्मीनान-फुरसत, आराम।
11. कौसानी की गिनती कुमाऊँ के सबसे सुंदर पर्यटन स्थलों में की जाती है। यह 1890 मी. ऊँचाई पर बसा कस्बा है, जहाँ से हिमालय का विहंगम दृश्य दिखाई देता है। कौसानी में पहाड़ों की चोटियों पर सूर्य को डूबते देखना एक प्राकृतिक अनुभव है। यहाँ सूर्यास्त देखने की सबसे अच्छी जगह है-अनासक्ति आश्रम। अनासक्ति आश्रम महात्मा गांधी को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए बनाया गया था, जिन्होंने 1929 में इस स्थान की यात्रा की थी और इसके प्राकृतिक सौंदर्य से अभिभूत होकर इसे ‘भारत का स्विट्जरलैंड’ की संज्ञा दी थी। यह वही स्थान है, जहाँ उन्होंने अपनी पुस्तक अनासक्ति योग लिखी थी।
आश्रम में गांधी जी के जीवन से जुड़ी पुस्तकों और फ़ोटोग्राफ़्स का अच्छा संग्रह है और एक छोटी-सी बुकशॉप भी है। यहाँ एक छोटा-सा प्रार्थना कक्ष भी है जहाँ हर दिन सुबह और शाम प्रार्थना सभा आयोजित होती है। इस जगह के बारे में गांधी जी ने लिखा है’इन पहाड़ों में प्राकृतिक सौंदर्य की मेहमाननवाजी के आगे मानव द्वारा किया गया कोई भी सत्कार फीका है। मैं आश्चर्य के साथ सोचता हूँ कि इन पर्वतों के सौंदर्य और जलवायु से बढ़कर किसी और जगह का होना तो दूर, इनकी बराबरी भी संसार का कोई सौंदर्य स्थल नहीं कर सकता है।
प्रश्नः 1.
कौसानी की प्रसिद्धि का क्या कारण है ?
उत्तर:
कौसानी की प्रसिद्धि का कारण उसका प्राकृतिक सौंदर्य है, जहाँ से हिमालय का विहंगम दृश्य दिखाई देता है।
प्रश्नः 2.
अनासक्ति आश्रम को क्यों बनवाया गया था?
उत्तर:
अनासक्ति आश्रम महात्मा गांधी जी को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए बनाया गया था, जिन्होंने 1929 में इस स्थान की यात्रा की थी।
प्रश्नः 3.
गांधी जी ने इसे कौन-सा उपनाम दिया था और क्यों?
उत्तर:
गांधी जी ने इसे ‘भारत का स्विट्जरलैंड’ उपनाम दिया था, क्योंकि यह स्थान बहुत ही खूबसूरत है। यहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य आने वालों की जैसी मेहमाननवाजी करता है, वैसा मनुष्य नहीं करता है।
प्रश्नः 4.
अनासक्ति आश्रम की दो विशेषताएँ गद्यांश के आधार पर लिखिए।
उत्तर:
अनासक्ति आश्रम की दो विशेषताएँ।
(क) अनासक्ति आश्रम सूर्योदय देखने की सर्वोत्तम जगह है।
(ख) इसी आश्रम में गांधी जी ने अपनी पुस्तक अनासक्ति योग लिखी थी।
प्रश्नः 5.
‘अनासक्ति’ और ‘श्रद्धांजलि’ शब्दों का संधि-विच्छेद कीजिए।
उत्तर:
अनासक्ति-अन+आसक्ति, श्रद्धाजंलि श्रद्धा+अजंलि।
12. यह घटना सन् 1899 की है। उन दिनों कोलकाता में प्लेग हुआ था शायद ही कोई ऐसा घर बचा था जहाँ यह बीमारी न पहुँची हो। ऐसी विकट स्थिति में भी स्वामी विवेकानंद और उनके कई शिष्य रोगियों की सेवा-शुश्रूषा में जुटे हुए थे। वे अपने हाथों से नगर की गलियाँ और बाज़ार साफ़ करते थे और जिस घर में प्लेग का कोई मरीज होता था, उन्हें दवा आदि देकर उनका उपचार करते थे। उसी दौरान कुछ लोग स्वामी विवेकानंद के पास आए। उनका मुखिया बोला, ‘स्वामी जी, इस धरती पर पाप बहुत बढ़ गया है, इसलिए प्लेग की महामारी के रूप में भगवान लोगों को दंड दे रहे हैं।
पर आप ऐसे लोगों को बचाने का यत्न कर रहे हैं। ऐसा करके आप भगवान के कार्यों में बाधा डाल रहे हैं।’ मंडली के मुखिया की ऐसी बातें सुनकर स्वामी जी गंभीरता से बोले, ‘सबसे पहले तो मैं आप सब विद्वानों को नमस्कार करता हूँ।’ इसके बाद स्वामी जी बोले, ‘आप सब यह तो जानते ही होंगे कि मनुष्य इस जीवन में अपने कर्मों के कारण कष्ट और सुख पाता है। ऐसे जो व्यक्ति कष्ट से पीड़ित है और तड़प रहा है, यदि दूसरा व्यक्ति उसके घावों पर मरहम लगा देता है तो वह स्वयं ही पुण्य का अधिकारी बन जाता है।
अब यदि आपके अनुसार प्लेग से पीड़ित लोग पाप के भागी हैं तो हमारे कार्यकर्ता इन लोगों की मदद कर रहे हैं। हमारे जो कार्यकर्ता इन लोगों की मदद कर रहे हैं वे तो पुण्य के भागी बन रहे हैं। बताइए कि इस संदर्भ में आपको क्या कहना है ?’ उनकी बात सुनकर सभी लोग भौंचक्के रह गए और चुपचाप सिर झुकाकर वहाँ से चले गए।
प्रश्नः 1.
गद्यांश में किस घटना का वर्णन है?
उत्तर:
कोलकाता में घर-घर प्लेग फैलने और स्वामी जी के शिष्यों द्वारा रोगियों की सेवा करने का वर्णन है।
प्रश्नः 2.
भगवान के कार्य में बाधा डालना किसे कहा गया है? ऐसा कौन कह रहे थे?
उत्तर:
प्लेग से पीड़ित लोगों की सेवा करने जैसे कार्य को भगवान के कार्य में बाधा डालना कहा गया है। ऐसा हैजा पीड़ित व्यक्तियों के मध्य रहने वालों की मंडली के मुखिया जी कह रहे थे।
प्रश्नः 3.
स्वामी जी अपने शिष्यों के साथ मानवता की सेवा में किस तरह जुटे थे?
उत्तर:
स्वामी जी अपने शिष्यों के साथ कोलकाता के प्लेग पीड़ितों की सेवा सुश्रूषा करके, वहाँ की गलियों और बाज़ार की साफ़-सफ़ाई करके, दवा खिलाकर उनका उपचार करके मानवता की सेवा में जुटे थे।
प्रश्नः 4.
बीमारी के बारे में लोगों की धारणा क्या थी?
उत्तर:
प्लेग जैसी भयानक बीमारी के बारे में लोगों की धारणा यह थी कि धरती पर पाप बहुत बढ़ गया है। इसी को कम करने के लिए ईश्वर प्लेग की महामारी के रूप में लोगों को दंडित कर रहा है।
प्रश्नः 5.
पुण्य का अधिकारी कौन बनता है? कार्यकर्ताओं को यह अधिकार किस तरह मिल गया था?
उत्तर:
कष्ट से पीड़ित और दुखी लोगों के दुखों को कम करने के लिए मरीज के घावों पर जो लगाता है, वही व्यक्ति पुण्य का अधिकारी बनता है। कार्यकर्ताओं द्वारा यह काम तत्परता और निष्ठा से किए जाने के कारण उन्हें यह अधिकार स्वतः ही मिल गया।
13. मित्रता के बिना संसार शून्य है। यह मायावी संसार के प्रेमपूर्वक सहज भोगने का एक माध्यम है। हमारे घर में धन-धान्य और समस्त ऐश्वर्य विद्यमान हों पर घर के सदस्यों के बीच मित्रवत् संबंध नहीं हैं तो वह ऐश्वर्य किसी काम का नहीं। घोर गोपनीय बात, अत्यंत कठिन संकटपूर्ण परिस्थिति और अपार प्रसन्नता में मनुष्य सगे-संबंधियों का साथ छोड़ सकता है, किंतु मित्र का नहीं। राजद्वार से श्मशान तक में भी मित्रता अटूट रहती है। द्रोह, छल, कपट मन में आता नहीं, प्राण देकर मित्रता का निर्वाह करता है। मित्रों में परस्पर विश्वास की भावना अधिक रहती है।
जो लोग मित्र के दुख से दुखी नहीं होते, उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है। अपने पर्वत के समान दुख को धूलि-कण के समान और मित्र के धूल-कण के समान दुख को सुमेरु पर्वत के समान जाने, जिन्हें स्वभाव से ही ऐसी बुद्धि प्राप्त नहीं है, वे मूर्ख हठ करके क्यों किसी से मित्रता करते हैं? मित्र का धर्म है कि वह मित्र को बुरे मार्ग से रोककर अच्छे मार्ग पर चलाए। उनके गुण प्रकट करे और अवगुणों को छिपाए। लेन-देन में मन में शंका न रखे। अपनी शक्ति के अनुसार सदा मित्र का हित ही करता रहे। दूसरी ओर जो सामने तो कोमल और मधुर वचन बोलता है और पीछे अहित करता है तथा मन में कुटिलता रखता है। हे भाई! जिसका मन साँप की चाल के समान टेढ़ा है, ऐसे कुमित्र को त्यागने में ही भलाई है। वे मानव की मित्रता के विश्वासी नहीं।
प्रश्नः 1.
हम धन-धान्य और ऐश्वर्य का आनंद कब नहीं उठा सकते हैं?
उत्तर:
हम अपने पास उपलब्ध धन-धान्य और ऐश्वर्य का आनंद तब नहीं उठा सकते हैं, जब घर के सदस्यों के बीच हमारा संबंध मित्रवत नहीं होता है।
प्रश्नः 2.
सच्चा मित्र अपनी मित्रता का निर्वाह कैसे करता है?
उत्तर:
सच्चा मित्र अत्यंत संकटपूर्ण परिस्थिति में साथ देता है, राजद्वार से श्मशान घाट तक साथ निभाता है तथा अपना प्राण देकर भी मित्रता का निर्वाह करता है।
प्रश्नः 3.
सच्चे मित्र की क्या विशेषता है?
उत्तर:
सच्चा मित्र अपने मित्र के दुख में दुखी और सुख में खुशी होता है। वह मित्र के धूल-कण के बराबर दुख को सुमेरु पर्वत के समान समझकर मदद करता है।
प्रश्नः 4.
अच्छा मित्र किस प्रकार अपने मित्र का भला करता है?
उत्तर:
एक अच्छा मित्र अपने मित्र को बुरे रास्ते पर चलने से रोकता है। उसके गुणों के बारे में दूसरों को बताता है और अवगुणों को छिपाता है। वह अपनी शक्ति से उसकी मदद करके अपने मित्र का भला करता है।
प्रश्नः 5.
मानव की मित्रता के विश्वासी कौन नहीं होते हैं?
उत्तर:
मानव की मित्रता के विश्वासी वे लोग नहीं होते हैं, जो सामने होने पर कोमल और मधुर वचन बोलते हैं तथा अहित करते हैं और मन में कुटिलता रखते हैं। जो मन में छल-कपट रखते हैं, ऐसे मित्र मानव की मित्रता के विश्वासी नहीं होते हैं।
14. सरकार अखबारों में तो महँगाई कम करने की बात करती है, पर वह भी महँगाई बढ़ाने में किसी से कम नहीं है। सरकारी उपक्रम भी अपने उत्पादों के दाम बढ़ाते रहते हैं। वे अपने उद्देश्य को भुला बैठते हैं कि उन्हें इसलिए शुरू किया गया है कि भावों पर नियंत्रण कर सकें। उत्पादन के नाम पर सरकार लंबी-चौड़ी योजनाएँ बनाती है, पर उनका क्रियान्वयन पूरी तरह से नहीं हो पाता। इस जानलेवा महँगाई ने आम लोगों की कमर तोड़कर रख दी है।
अब उन्हें दो समय का भोजन जुटाना तक कठिन हो गया है। आवास-समस्या पर भी महँगाई की मार पड़ी है। शहरों में दो कमरों का फ़्लैट चार हज़ार रुपए महीने से कम किराए पर नहीं मिल पाता। कपड़ों का तो कुछ पूछिए ही नहीं। यह सही है कि हमारी आवश्यकताएँ बढ़ती जा रही हैं और इसने भी महँगाई को बढ़ाने में योगदान दिया है, पर विकाशील राष्ट्र में ऐसा होता ही है। महँगाई के लिए अंधाधुंध बढ़ती जनसंख्या भी उत्तरदायी है। इस पर हमें नियंत्रण करना होगा।
प्रश्नः 1.
महँगाई कम करने की बात करने वाली सरकार महँगाई कैसे बढ़ाती है?
उत्तर:
सरकार महँगाई कम करने की बात तो करती है, परंतु वह सरकारी उपक्रमों के उत्पादों का दाम बढ़ाती रहती है। । इस प्रकार सरकार स्वयं महँगाई बढ़ाती है।
प्रश्नः 2.
वस्तुओं का उत्पादन क्यों नहीं बढ़ पाता है?
उत्तर:
वस्तुओं का उत्पादन इसलिए नहीं बढ़ पाता है, क्योंकि उत्पादन बढ़ाने के लिए सरकार लंबी-चौड़ी योजनाएँ तो बनाती है, परंतु उनका क्रियान्वयन नहीं करती है।
प्रश्नः 3.
महँगाई ने आम लोगों पर क्या असर डाला है और कैसे?
उत्तर:
महँगाई ने आम लोगों का जीवनयापन करना मुश्किल कर दिया है। वे न अपने लिए दो जून की रोटी जुटा सकते हैं और न अपने लिए कपड़े का इंतजाम कर सकते हैं। आवास की समस्या तो उनके लिए और भी बड़ी है।
प्रश्नः 4.
हमें अपनी आवश्यकताओं पर क्यों नियंत्रण करना होगा?
उत्तर:
हमें अपनी आवश्यकताओं पर इसलिए नियंत्रण करना होगा क्योंकि हमारी बढ़ती आवश्यकताओं के कारण महँगाई बढ़ती जा रही है।
प्रश्नः 5.
उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर:
उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक है-महँगाई और आम आदमी या महँगाई-एक विकट समस्या।
15. जब कोई युवा अपने घर से बाहर निकलकर बाहरी संसार में अपनी स्थिति जमाता है, तब पहली कठिनता उसे मित्र चुनने में
पड़ती है। यदि उसकी स्थिति बिल्कुल एकांत और निराली नहीं रहती तो उसकी जान-पहचान के लोग धड़ाधड़ बढ़ते जाते हैं, और थोड़े ही दिनों में कुछ लोगों से उसका मेलजोल हो जाता है।
यही हेल-मेल बढ़ते-बढ़ते मित्रता के रूप में परिणत हो जाता है। मित्रों के चुनाव की उपयुक्तता पर उसके जीवन की सफलता निर्भर हो जाती है, क्योंकि संगति का बड़ा भारी गुप्त प्रभाव हमारे आचरण पर पड़ता है। हम लोग ऐसे समय में समाज में प्रवेश करके अपना कार्य आरंभ करते हैं, जबकि हमारा चित्त कोमल और हर तरह का संस्कार ग्रहण करने योग्य रहता है।
हमारे भाव अपरिमार्जित और हमारी प्रवृत्ति अपरिपक्व रहती है। हम लोग कच्ची मिट्टी की मूर्ति के समान रहते हैं, जिसे जो जिस रूप में चाहे, उस रूप में ढाले, चाहे राक्षस बनाए, चाहे देवता। ऐसे लोगों का साथ करना हमारे लिए बुरा है, जो हमसे अधिक दृढ़ संकल्प के हैं, क्योंकि हमें उनकी हर बात बिना विरोध के मान लेनी पड़ती है। पर ऐसे लोगों का साथ करना और भी बुरा है, जो हमारी ही बात को ऊपर रखते हैं, क्योंकि ऐसी दशा में न तो हमारे ऊपर कोई नियंत्रण रहता है और न हमारे लिए कोई सहारा रहता है।
प्रश्नः 1.
घर से बाहर निकले युवा के सामने क्या समस्या आती है और क्यों?
उत्तर:
घर से बाहर निकले युवा के सामने यह समस्या आती है कि वह अपना मित्र किसे चुने। उसकी जान-पहचान के लोग उसके मित्र बन जाते हैं, पर सच्चे मित्र की समस्या बनी रहती है।
प्रश्नः 2.
जीवन की सफलता किस बात पर निर्भर करती है और क्यों?
उत्तर:
जीवन की सफलता मित्रों के चुनाव की उपयुक्तता पर निर्भर करता है, क्योंकि हम जैसी संगति करेंगे उसका प्रभाव हम पर अवश्य पड़ेगा। अच्छों की संगति में हम अच्छे बनेंगे और बुरे की संगति में बुरे।
प्रश्नः 3.
समाज में प्रवेश करते समय व्यक्ति की दशा कैसी होती है ? ऐसे में उसे क्या सावधानी बरतनी चाहिए?
उत्तर:
व्यक्ति जब समाज में प्रवेश करता है तब उसका चित्त अत्यंत कोमल और हर तरह का संस्कार ग्रहण करने योग्य होता है। ऐसे में व्यक्ति को बुराई से बचते हुए अच्छे मित्र का चयन ही करना चाहिए।
प्रश्नः 4.
‘हम लोग कच्ची मिट्टी की मूर्ति के समान रहते हैं’-से कवि का क्या आशय है?
उत्तर:
‘हम लोग कच्ची मिट्टी की मूर्ति के समान रहते हैं’ से कवि का आशय है कि जिस प्रकार कच्ची मिट्टी को __ मनचाहा आकार देकर विभिन्न वस्तुएँ बना दी जाती हैं उसी प्रकार हमारी अपरिपक्व प्रवृत्ति और कोमल चित्त पर अच्छाई या बुराई ऐसा प्रभाव डालती है कि हम वैसे ही बन जाते हैं।
प्रश्नः 5.
विलोम शब्द लिखिए- गुप्त, उपयुक्त।
उत्तर:
गुप्त – प्रकट
उपयुक्त x अनुपयुक्त
16. महानगरों में भीड़ होती है, भीड़ उसे कहते हैं, जहाँ लोगों का जमघट होता है। लोग तो होते हैं, लेकिन उनकी छाती में हृदय नहीं होता। सिर होते हैं, लेकिन उनमें विचार और बुद्धि नहीं होती। हाथ होते हैं; लेकिन उन हाथों में पत्थर होते हैं, विध्वंस के लिए। वे हाथ निर्माण के लिए नहीं होते। यह भीड़ एक अंधी गली से दूसरी अंधी गली की ओर जाती है, क्योंकि भीड़ में होने वाले लोगों का आपस में कोई रिश्ता नहीं होता।
वह एक-दूसरे के कुछ भी नहीं लगते। सारे अनजान लोग इकट्ठे होकर विध्वंस करने में एक-दूसरे का साथ देते हैं, क्योंकि जिन इमारतों, बसों और रेलों में तोड़-फोड़ का काम करते हैं, वे उनकी नहीं होती और न ही उनमें सफर करने वाले उनके अपने होते हैं। महानगरों में लोग एक ही बिल्डिंग में पडोसी की तरह रहते हैं, लेकिन यह पड़ोस भी संबंध रहित होता है। पुराने ज़माने में दही जमाने के लिए जामन माँगने पड़ोस में लोग जाते थे, अब हर ‘फ़्लैट’ में फ्रिज है, इसलिए जाने की ज़रूरत नहीं रही। सारा पड़ोस, सारे संबंध इस फ्रिज में ‘फ्रीज़’ हो गए हैं।
प्रश्नः 1.
लेखक ने ऐसा क्यों कहा है कि लोग तो होते हैं, लेकिन उनकी छाती में हृदय नहीं होता।
उत्तर:
लेखक ने ऐसा इसलिए कहा है क्योंकि साथ-साथ रहकर भी एक-दूसरे को नहीं जानते हैं और न उनसे बातें करते _हैं। एक-दूसरे के सुख-दुख पर ध्यान नहीं देते।
प्रश्नः 2.
गद्यांश के आधार पर भीड़ की विशेषता लिखिए।
उत्तर:
महानगरीय भीड़ में लोगों का वह जमघट होती है जहाँ लोग एकत्र तो हैं, पर वे एक-दूसरे को जानते-पहचानते नहीं हैं। उनका आपस में कोई रिश्ता नहीं होता है। वे अनजान होकर भी विध्वंसात्मक कार्य करते हैं।
प्रश्नः 3.
महानगरों में लोग कैसे रहते हैं?
उत्तर:
महानगरों में एक ही बिल्डिंग में रहकर भी लोग पड़ोसियों जैसे रहते हैं। यह पड़ोस भी उनमें आपस में संबंध नहीं बना पाता है।
प्रश्नः 4.
संबंधों का फ्रीज़ होने का आशय क्या है?
उत्तर:
संबंधों का फ्रीज़ होने का आशय है-संबंधों में ठहराव आ जाना, उनमें ऊष्मा न रह जाना, अपनत्व और प्यार की कमी हो जाना।
प्रश्नः 5.
उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर:
महानगरों का जीवन या मानवीय संबंधों में आती गिरावट।
17. यदि हमारे वृक्ष स्वस्थ हैं तो निश्चित मानिए हम भी स्वस्थ हैं। हमें तो प्राणवायु उन्हीं से मिलती है। हम कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ते हैं या उन्हें देते हैं और वे बदले में ऑक्सीजन देते हैं। जो हमारे जीवन की हर गतिविधि के लिए आवश्यक है। हमारे स्वास्थ्य का हर बिंदु ऑक्सीजन की उपलब्धता से अनुप्राणित है भले ही यह बात हमें कल्पना लोक की लगती हो, लेकिन यह वैज्ञानिक प्रामाणिकता भी रखती है, इसमें रत्ती भर भी संदेह करने की गुंजाइश नहीं है।
हम यदि अपने आस-पास खड़े वृक्षों की रक्षा का जिम्मा अपने कंधों पर उठा लें, तो निश्चित मानिए हमने अपने स्वास्थ्य को लंबे समय तक स्वस्थ रखने की गारंटी प्राप्त कर ली है। वृक्षों की रक्षा में ही हमारे जीवन की सुरक्षा का राज छिपा है। कहा जाता है “एक स्वस्थ मन हज़ारों सोने के सिंहासनों से कहीं अधिक मूल्यवान होता है, क्योंकि स्वस्थ मन ही समाज और स्वस्थ देश की रचना करने में समर्थ है। कुत्सित विचारों वाले लोग अपना जीवन तो चला सकते हैं लेकिन समाज और देश को नहीं चला सकते। करोड़ों परिवारों के सुनहरे भविष्य के बारे में वही चिंतन, मनन और सृजन कर सकता है जो व्यर्थ के लालच, लोभ व षड्यंत्रों से मुक्त हो और जिस पर किसी भी प्रकार का कोई अनुचित दबाव न हो।”
प्रश्नः 1.
हमारा स्वास्थ्य किन पर निर्भर करता है?
उत्तर:
हमारा स्वास्थ्य वृक्षों के स्वस्थ होने और उनसे मिलने वाली प्राणवायु पर निर्भर करता है।
प्रश्नः 2.
वृक्षों का स्वस्थ होना क्यों आवश्यक होता है?
उत्तर:
वृक्षों का स्वस्थ होना इसलिए आवश्यक होता है क्योंकि वृक्ष हमें प्राणदायी ऑक्सीजन देते हैं। हमारे द्वारा छोड़ी : गई वायु (कार्बन डाई ऑक्साइड) को लेकर ऑक्सीजन देते हैं। जिससे हमारी शारीरिक गतिविधियाँ चलती हैं।.
प्रश्नः 3.
किस बात को कल्पना लोक की बात कहा गया है? हमें इसे वास्तविक क्यों मानना चाहिए?
उत्तर:
हमारे स्वास्थ्य का हर बिंदु ऑक्सीजन की उपलब्धता से ही प्राणवान रहता है। ऑक्सीजन के अभाव में उसका काम करना संभव नहीं होगा। इसे कल्पना लोक की बात कहा गया है, पर यह बात वैज्ञानिक प्रमाणित है, अतः इसे वास्तविक मानना चाहिए।
प्रश्नः 4.
हमारे जीवन की सुरक्षा का रहस्य कहाँ छिपा है और क्यों?
उत्तर:
हमारे जीवन की रक्षा का रहस्य वृक्षों की सुरक्षा में छिपा है क्योंकि पेड़ों की आक्सीजन से हम स्वस्थ एवं जीवित रह सकते हैं और देश व समाज की रचना करने में समर्थ हो सकते हैं।
प्रश्नः 5.
समाज में कुत्सित विचार वाले लोगों की ज़रूरत क्यों नहीं है?
उत्तर:
समाज में कुत्सित विचार वालों की ज़रूरत इसलिए नहीं है क्योंकि ऐसे लोग देश और समाज नहीं चला सकते हैं। कुत्सित विचार वालों के मन में व्यर्थ की लालच, लोभ, और षड्यंत्र भरा होता है, जो समाज एवं देश की उन्नति में बाधक होता है।
18. अनुशासनहीनता के अनेक कारण हैं। इन कारणों पर विचार कर उन्हें दूर करने का प्रयत्न किया जाना चाहिए, जिससे विद्यार्थियों में अनुशासित जीवन जीने की कला का विकास हो। कई छात्र वैयक्तिक कारणों से अनुशासनहीनता का शिकार हो जाते हैं। ऐसे छात्र दिशाहीन जीवन जीते हैं। वे न तो समय पर अपना गृहकार्य करते हैं और न ही कार्य विशेष में उनकी रुचि होती है। इससे वे अन्य छात्रों से पिछड़ जाते हैं और कई बार अनुशासनहीन कार्यों में लिप्त हो आत्महीनता का परिचय देते हैं।
पारिवारिक वातावरण तथा परिस्थितियाँ भी अनुशासनहीनता का कारण बन जाती हैं। माता-पिता का अनुचित दबाव, बाल मनोविज्ञान के प्रति उदासीनता आदि से भी छात्रों में अनुशासनहीनता को बढ़ावा मिलता है। आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक कारणों से भी छात्रों में अनुशासनहीनता को गति मिलती है। वर्तमान शिक्षा पद्धति भी छात्रों में अनुशासनहीनता के लिए कुछ हद तक दोषी है, क्योंकि इसमें छात्रों की व्यक्तिगत रुचि को नज़रअंदाज कर दिया जाता है और परीक्षाओं तथा उनमें प्राप्त अंकों को विशेष महत्त्व दिया जाता है।
इससे कई छात्रों की प्रतिभा दबकर रह जाती है। कई बार बहुत अच्छे अंक प्राप्त कर भी छात्र अपनी इच्छानुरूप संस्थाओं में प्रवेश नहीं ले पाते और कम प्रतिभावान तथा कम अंक प्राप्त छात्र कई अन्य कारणों से प्रवेश प्राप्त कर लेते हैं। भाई-भतीजावाद, बेरोजगारी एवं भविष्य के प्रति अनास्था भी अनुशासनहीनता का कारण बन जाते हैं।
प्रश्नः 1.
अनुशासनहीन छात्रों का व्यवहार कैसा होता है?
उत्तर:
अनुशासनहीन छात्र दिशाहीन जीवन जीते हैं। वे समय पर गृहकार्य नहीं करते हैं तथा कार्य विशेष में रुचि न दिखाने के कारण पिछड़ जाते हैं। वे अनुशासन कार्य करके आत्महीनता का परिचय देते हैं।
प्रश्नः 2.
पारिवारिक वातावरण छात्रों को किस प्रकार अनुशासनहीन बनाता है?
उत्तर:
कई बार माता-पिता बच्चों पर अनुचित दबाव डालते हैं। इसके अलावा वे बाल मनोविज्ञान के प्रति उदासीन होते हैं। इस प्रकार पारिवारिक वातावरण भी छात्रों को अनुशासनहीन बनाता है।
प्रश्नः 3.
वर्तमान शिक्षा पद्धति अनुशासनहीनता के लिए क्यों दोषी है?
उत्तर:
वर्तमान शिक्षा पद्धति में छात्रों की रुचि को महत्त्व नहीं दिया जाता है। परीक्षाओं और उनमें प्राप्त अंकों को अधिक महत्त्व दिया जाता है। इस प्रकार शिक्षा व्यवस्था भी दोषी
प्रश्नः 4.
छात्रों की प्रतिभा कब दबकर रह जाती है?
उत्तर:
छात्रों की प्रतिभा तब दबकर रह जाती है, जब छात्रों की रुचियों की जगह परीक्षा और उनमें प्राप्त अंकों को महत्त्व दिया जाता है।
प्रश्नः 5.
‘प्रतिभा’, ‘दिशा’, ‘परिवार’ और ‘व्यक्ति’ शब्दों से बने विशेषण शब्द गद्यांश से खोजकर लिखिए।
उत्तर:
प्रतिभा प्रतिभावान, दिशा-दिशाहीन, परिवार-पारिवारिक, व्यक्ति-वैयक्तिक।
19. जब-जब समाज पथभ्रष्ट हुआ है, तब-तब युग सर्जक की भूमिका का निर्वाह शिक्षकों ने बखूबी किया है। आज की दशा में भी जीवन मूल्यों की रक्षा के गुरुतर दायित्व शिक्षक पर ही आ जाता है। वर्तमान स्थिति में जीवनमूल्यों के संस्थापन का भार शिक्षकों पर पहले की अपेक्षा अधिक हो गया है, क्योंकि आज का परिवार बालक के लिए सदगुणों की पाठशाला जैसी संस्था नहीं रह गया है जहाँ से बालक एक संतुलित व्यक्तित्व की शिक्षा पा सके। शिक्षक, विद्यालय परिसर में छात्र के लिए आदर्श होता है।
शिक्षक के हर क्रियाकलाप पर छात्रों की दृष्टि रहती है। प्राथमिक स्तर के छात्र तो अपने शिक्षकों के निर्देश को ब्रह्मवाक्य मानकर उनका अनुसरण करते हैं। यहाँ तक कि अपने माता-पिता की तुलना में शिक्षकों को अधिमान देते हैं। इस वर्ग के छात्र किसी अन्य की बातों को उतना महत्त्व नहीं देते जितना कि अपने शिक्षकों की बातों को वे महत्त्वपूर्ण समझते हैं।
प्राथमिक स्तर के छात्रों का चित्त निर्मल होता है। यही काल छात्रों में जीवन मूल्यों के संस्थापन का उत्तम काल है। इस अवस्था के छात्रों के स्वच्छ एवं निर्विकार मन पर शिक्षक जो भाव अंकित करना चाहें, कर सकते हैं। इस समस्या का मन पर पड़ने वाला प्रभाव स्थायी होता है। अतः इस स्तर पर शिक्षण कार्य में कार्यरत शिक्षकों को अपने छात्रों को छोटी-छोटी नीतिपरक कथाएँ सुनाकर उनमें जीवन मूल्यों का बीजारोपण करना चाहिए।
प्रश्नः 1.
उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर:
गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक है-वर्तमान समय में शिक्षकों की भूमिका।
प्रश्नः 2.
वर्तमान काल में जीवनमूल्यों की रक्षा का दायित्व किस पर आ गया है ? और क्यों?
उत्तर:
वर्तमान काल में जीवन-मूल्यों की रक्षा का दायित्व शिक्षकों पर आ गया है, क्योंकि अब परिवार सद्गुणों को सिखाने वाली पाठशाला नहीं रह गया है। इससे बालक का संतुलित विकास नहीं हो पाता है।
प्रश्नः 3.
छात्र की दृष्टि में शिक्षक की स्थिति कैसी होती है? यह कैसे पता चलता है?
उत्तर:
छात्र की दृष्टि में शिक्षक की स्थिति गरिमापूर्ण होती है। छात्र शिक्षक को अपना आदर्श मानता है तथा उनकी हर बात को ब्रह्मवाक्य मानकर उनका अनुसरण करता है। वह अपने माता-पिता से भी अधिक वरीयता शिक्षक को देता है।
प्रश्नः 4.
जीवन मूल्यों की संस्थापना का सर्वोत्तम काल कौन-सा है और क्यों?
उत्तर:
बच्चों में जीवन-मूल्यों की संस्थापना का सर्वोत्तम काल उनका बचपन होता है, जब वे प्राथमिक स्तर पर पढ़ रहे होते हैं। इस काल में उनके निर्मल चित्त एवं स्वच्छ एवं निर्विकार मन पर मनचाहे भाव अंकित किए जा सकते हैं।
प्रश्नः 5.
जीवन मूल्यों की स्थापना के लिए अध्यापकों को क्या करना चाहिए?
उत्तर:
प्राथमिक स्तर पर छोटे बच्चों को पढ़ाने वाले अध्यापकों को चाहिए कि वे बच्चों में जीवनमूल्यों की स्थापना के लिए उन्हें नीतिपरक कथाएँ सुनाएँ।
20. विश्व के प्रायः सभी धर्मों में अहिंसा के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है। भारत के सनातन हिंदू धर्म और जैन धर्म के सभी ग्रंथों में अहिंसा की विशेष प्रशंसा की गई है। ‘अष्टांग योग’ के प्रवर्तक पतंजलि ऋषि ने योग के आठों अंगों में प्रथम अंग ‘यम’ के अंतर्गत ‘अहिंसा’ को प्रथम स्थान दिया है। इसी प्रकार ‘गीता’ में भी अहिंसा के महत्त्व पर जगह-जगह प्रकाश डाला गया है। भगवान महावीर ने अपनी शिक्षाओं का मूलाधार अहिंसा को बताते हुए ‘जियो और जीने दो’ की बात कही है। अहिंसा मात्र हिंसा का अभाव ही नहीं, अपितु किसी भी जीव का संकल्पपूर्वक वध नहीं करना और किसी जीव या प्राणी को अकारण दुख नहीं पहुँचाना हैं।
ऐसी जीवन-शैली अपनाने का नाम ही ‘अहिंसात्मक जीवन-शैली’ है। अकारण या बात-बात में क्रोध आ जाना हिंसा की प्रवृत्ति का एक प्रारंभिक रूप है। क्रोध मनुष्य को अंधा बना देता है; वह उसकी बुद्धि का नाश कर उसे अनुचित कार्य करने को प्रेरित करता है, परिणामतः दूसरों को दुख और पीड़ा पहुँचाने का कारण बनता है। सभी प्राणी मेरे लिए मित्रवत् हैं।
मेरा किसी से भी बैर नहीं है, ऐसी भावना होने पर अहं जनित क्रोध समाप्त हो जाएगा और हमारे मन में क्षमा का भाव पैदा होगा। क्षमा का यह उदात्त भाव हमें हमारे परिवार से सामंजस्य कराने व पारस्परिक प्रेम को बढ़ावा देने में अहम् भूमिका निभाता है। हमें ईर्ष्या तथा द्वेष रहित होकर लोभवृत्ति का त्याग करते हुए संयमित खान-पान तथा व्यवहार एवं क्षमा की भावना को जीवन में उचित स्थान देते हुए अहिंसा का एक ऐसा जीवन जीना है कि हमारी जीवन-शैली एक अनुकरणीय आदर्श बन जाए।
प्रश्नः 1.
प्रारंभिक, अनुकरणीय शब्दों में प्रयुक्त प्रत्यय और मूलशब्द लिखिए।
उत्तर:
प्रश्नः 2.
अहिंसात्मक जीवन-शैली से लेखक का क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
अहिंसात्मक जीवन शैली से लेखक का अभिप्राय है-अहिंसा केवल हिंसा का अभाव नहीं है, अपितु किसी भी जीव का संकल्पपूर्वक वध न करना और किसी जीव या प्राणी को अकारण दुख न पहुँचाना।
प्रश्नः 3.
कैसी जीवन-शैली अनुकरणीय हो सकती है?
उत्तर:
ईर्ष्या एवं द्वेष से दूर रहकर लोभ वृत्ति का त्याग करते हुए जीना तथा अपने खान-पान व व्यवहार को संयमित रखते __ हुए क्षमा की भावना को स्थान देकर जीवन बिताना तथा अहिंसा द्वारा आदर्शमय जीवन जीने की शैली अनुकरणीय हो सकती है।
प्रश्नः 4.
“जियो और जीने दो” की बात किसने कही? इसका आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
‘जियो और जीने दो’ की बात भगवान महावीर स्वामी ने कही है। इसका अर्थ है कि हम अपना स्वतंत्र जीवन इस तरह जिएँ जिससे किसी को शारीरिक या मानसिक पीड़ा न पहुँचे तथा किसी की जान को क्षति न पहुँचे।
प्रश्नः 5.
क्षमा का भाव पारिवारिक जीवन में क्या परिवर्तन ला सकता है?
उत्तर:
क्षमा का उदात्त भाव हमारे मन में परिवार से सामंजस्य व पारस्परिक प्रेम बढ़ाने में अहम् भूमिका निभाता है। इससे हमारे मन में किसी पर उत्पन्न क्रोध समाप्त हो जाता है।
21 लोगों को यह कहते सुना जाता है कि एक और एक दो होते हैं, परंतु एक लोकोक्ति है ‘एक और एक ग्यारह’-इस कथन का अभिप्राय है कि एकता में शक्ति होती है। जब दो व्यक्ति एक साथ मिलकर प्रयास करते हैं तो उनकी शक्ति कई गुनी हो जाती हैं। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज अलग-अलग इकाइयों का समूहबद्ध रूप है, जिसमें हर इकाई समाज को शक्तिशाली बनाती है। व्यक्ति रूप में एक व्यक्ति का कोई महत्त्व नहीं, परंतु समष्टि रूप में वह समाज की एक इकाई है।
बाढ़ से बचने के लिए जब एक अंधे और लँगड़े में सहयोग हुआ तो अंधे को लँगड़े की आँखें तथा लँगड़े को अंधे की टाँगें मिल गईं और दोनों बच गए। एकता में बड़ी शक्ति है। जो समाज एकता के सूत्र में बँधा नहीं रहता, उसका पतन अवश्यंभावी है। भारत की परतंत्रता इसकी फूट का परिणाम थी। जब भारतवासियों ने मिलकर आज़ादी के लिए संघर्ष किया तो अंग्रेजों को यहाँ से भागना पड़ा। गणित में शून्य के प्रभाव से अंक दस गुने हो जाते हैं। अतः समाज का हर व्यक्ति सामूहिक रूप से समाज की रीढ़ होता है।
प्रश्नः 1.
गद्यांश का शीर्षक लिखिए।
उत्तर:
गद्यांश का शीर्षक है-एकता की शक्ति।
प्रश्नः 2.
‘एक और एक ग्यारह’ का अर्थ स्पष्ट कीजिए और बताइए कि ऐसा क्यों कहा जाता है ?
उत्तर:
एक और ग्यारह का अर्थ है-एकता में शक्ति होती है। ऐसा इसलिए कहा जाता है क्योंकि जब दो व्यक्ति एक साथ मिलकर प्रयास करते हैं तो उनकी शक्ति कई गुना बढ़ जाती है।
प्रश्नः 3.
समाज की शक्ति बढ़ाने में मनुष्य अपना योगदान किस तरह देता है ?
उत्तर:
अकेला मनुष्य समाज में विशिष्ट स्थान नहीं रखता है, परंतु वह एकता की शक्ति पाकर समाज की एक इकाई बन जाता है। यही अलग-अलग इकाइयाँ समूहबद्ध होकर समाज को शक्तिशाली बनाकर अपना योगदान देती हैं।
प्रश्नः 4.
अंधे और लँगड़े का उदाहरण किस संदर्भ में दिया गया है और क्यों?
उत्तर:
अंधे और लँगड़े का उदाहरण ‘एकता का महत्त्व’ बताने के संदर्भ में किया गया है, क्योंकि अंधे को लँगडे की आँखें और लँगड़े को अंधे की टाँगें मिल जाने के कारण दोनों बाढ़ से बचने में सफल हो सके।
प्रश्नः 5.
एकता न होने के कारण भारतीयों को क्या परेशानी झेलनी पड़ी? इससे मुक्ति कैसे मिली?
उत्तर:
एकता न होने के कारण भारतीयों को परतंत्रता का अभिशाप झेलना पड़ा। भारतीयों ने जब एकजुट होकर संघर्ष किया तो अंग्रेज़ों को यहाँ भागना पड़ा और परतंत्रता से मुक्ति मिली।
22. आज भी भारत में साक्षरता का प्रतिशत लक्ष्य से काफी कम है। लोगों को शिक्षा का महत्त्व समझाना है। यदयपि काफ़ी लोग शिक्षा की आवश्यकता को समझ गए हैं, पर एक पूरी पीढ़ी के बदलाव के बाद ही साक्षरता का लक्ष्य पाया जा सकेगा। सरकारी प्रचार-माध्यमों से लोगों को शिक्षा का महत्त्व बताया जा रहा है, पर आर्थिक पिछड़ापन इसमें बाधक बन जाता है। भारत में प्रजातंत्र की स्थापना की गई है और प्रजातंत्र की सफलता के लिए लोगों का शिक्षित होना नितांत आवश्यक है।
शिक्षा के अभाव में नागरिक अपने अधिकारों एवं कर्तव्यों का सफल निर्वाह नहीं कर पाते। शिक्षा का महत्त्व जानना अति आवश्यक है। शिक्षा ही व्यक्ति का सर्वांगीण विकास करती है। शिक्षा व्यक्ति का दृष्टिकोण व्यापक बनाती है। अशिक्षित व्यक्ति न ही अपने अधिकारों को जानता है और न कर्तव्यों के प्रति सचेष्ट होता है। शिक्षित व्यक्ति ही लोकतंत्र का सही अर्थ समझते हैं। अशिक्षितों का लोकतंत्र तो भेड़चाल मात्र होता है। अब सरकार भी साक्षरता अभियान चलाकर अधिक से अधिक लोगों को शिक्षित बनाने का भरपूर प्रयास कर रही है। हमें यह बात समझनी चाहिए कि शिक्षा से हम लोगों का जीवन ही उन्नत होगा।
प्रश्नः 1.
गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर:
गद्यांश का शीर्षक है-जीवन में शिक्षा का महत्त्व।
प्रश्नः 2.
भारत में साक्षरता के लक्ष्य की क्या स्थिति है? इसे कब तक पाया जा सकता है?
उत्तर:
भारत में साक्षरता के लक्ष्य की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। यह लक्ष्य से काफ़ी पीछे है। इस लक्ष्य को पूरी पीढ़ी के बदलाव के बाद ही पाया जा सकता है।
प्रश्नः 3.
प्रजातंत्र की सफलता के लिए शिक्षा का महत्त्व स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
प्रजातंत्र की सफलता के लिए लोगों का शिक्षित होता अत्यंत आवश्यक है। शिक्षा के अभाव में नागरिक अपने अधिकारों से न तो अवगत हो पाते हैं और न अपने कर्तव्यों का सफल निर्वाह ही कर पाते हैं।
प्रश्नः 4.
व्यक्ति के लिए शिक्षा की आवश्यकता स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
व्यक्ति की सफलता के लिए शिक्षा बहुत ही आवश्यक है। शिक्षा से व्यक्ति का सर्वांगीण विकास होता है तथा इससे दृष्टिकोण विकसित होता है। इससे व्यक्ति को अपने अधिकार एवं कर्तव्यों का ज्ञान भी होता है।
प्रश्नः 5.
साक्षरता अभियान की सफलता हेतु सरकार द्वारा क्या-क्या प्रसास किए जा रहे हैं?
उत्तर:
साक्षरता अभियान की सफलता हेतु सरकारी प्रचार-माध्यमों द्वारा शिक्षा का महत्त्व बताया जा रहा है। इसके अलावा साक्षरता अभियान चलाकर अधिकाधिक लोगों को शिक्षित किया जा रहा है।
23. आज समाज में नारी की स्थिति में पुराने समय से काफी बदलावा आया है। प्राचीन काल में नारी को देवी मानकर पूजनीय बताया गया, पर मध्य काल में नारी की काफ़ी दुर्दशा हुई। उसे घर की चारदीवारी तक सीमित कर दिया गया। उसे भोग की वस्तु बना दिया। पुरुष वर्ग ने उसे अपने कठोर नियंत्रण में रखने का भरपूर प्रयास किया। यह एक प्रकार से नारी का शोषण था। पाश्चात्य जगत में नारी स्वातंत्र्य की लहर चली। नारी मुक्ति के कई आंदोलन चलाए गए। धीरे-धीरे यह प्रभाव भारत में भी आया।
गत एक दशक में नारी की स्थिति में अनेक क्रांतिकारी परिवर्तन लक्षित हो रहे हैं। अब की नारी पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलकार सभी क्षेत्रों में आगे बढ़ रही है। वह तरक्की की सभी मंजिलें छू लने की ओर निरंतर अग्रसर है। अब वह घर की चारदीवारी से बाहर निकलकर अपनी स्वतंत्र सत्ता का अहसास करा रही है। अब उसका कार्यक्षेत्र केवल घर तक सीमित नहीं रह गया है। नारी की स्थिति बदलने में अनेक तत्वों ने बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है। सबसे पहला कारण है-नारी शिक्षा के प्रति चेतना एवं उसका प्रसार। पहले अधिकांश नारियाँ अशिक्षित थीं। अतः वे अपनी स्थिति के बदलाव के बारे में सोच ही नहीं पाती थीं। सरकार की ओर से लड़कियों की शिखा को काफ़ी प्रोत्साहन दिया गया है। अतः साक्षरता प्रतिशत काफ़ी बढ़ गया है।
प्रश्नः 1.
भारत में नारी-स्वतंत्रता का प्रभाव कहाँ से आया?
उत्तर:
भारत में नारी स्वतंत्रता का प्रभाव पश्चिमी देशों से आया।
प्रश्नः 2.
प्राचीन काल और मध्यकाल में नारी की स्थिति में क्या बदलाव आया?
उत्तर:
प्राचीनकाल में नारी को देवी माना जाता था और उसकी वंदना की जाती थी, पर मध्यकाल में नारी की स्थिति बद से बदतर हो गई और वह शोषण का शिकार हो गई। इससे उसकी बड़ी दुर्दशा हुई।
प्रश्नः 3.
मध्यकाल में नारी का शोषण किस तरह किया गया?
उत्तर:
मध्यकाल में नारी को घर की चारदीवारी तक कैद कर दिया गया। पुरुषों ने उसे कठोर नियंत्रण में रखा और भोग विलास की वस्तु मान लिया तथा उसका मनचाहा शोषण किया।
प्रश्नः 4.
नारी मुक्ति हेतु चलाए गए आंदोलनों का क्या असर हुआ?
उत्तर:
नारी-मुक्ति हेतु जो आंदोलन चलाए गए उनका सकारात्मक प्रभाव दिखाई दिया। अब नारी हर क्षेत्र में पुरुषों से कंधा मिलाकर चल रही है। वह तरक्की की मंजिलें छूती हुई नितनई ऊँचाइयों की ओर अग्रसर है।
प्रश्नः 5.
नारी की स्थिति में बदलाव लाने में शिक्षा की भूमिका स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
नारी की स्थिति में बदलाव लाने में शिक्षा ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। पहले की अशिक्षित नारियाँ अपने बदलाव एवं अधिकार के बारे में सोच नहीं पाती थीं, किंतु अब वे शिक्षा से प्रोत्साहित होकर हरक्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं।
24. महात्मा गांधी अपना काम अपने हाथ करने पर बल देते थे। वह प्रत्येक आश्रमवासी से आशा करते थे कि वह अपने शरीर से संबंधित प्रत्येक कार्य, सफ़ाई तक स्वयं करेगा। उनका कहना था कि जो श्रम नहीं करता है वह पाप करता है और पाप का अन्न खाता है। ऋषि-मुनियों ने कहा है-बिना श्रम किए जो भोजन करता है वह वस्तुत: चोर है। महात्मा गांधी का समस्त जीवन दर्शन श्रम सापेक्ष था। उनका समस्त अर्थशास्त्र यही बताता था कि प्रत्येक उपभोक्ता को उत्पादनकर्ता होना चाहिए।
उनकी नीतियों की उपेक्षा करने के परिणाम हम आज भी भोग रहे हैं। न गरीबी कम होने में आती है, न बेरोज़गारी पर नियंत्रण हो पा रहा है और न आबादी पर नियंत्रण हमारे वश की बात रही है। दक्षिण कोरिया वासियों ने श्रमदान करके ऐसे श्रेष्ठ भवनों का निर्माण किया है, जिनसे किसी को भी ईर्ष्या हो सकती है। श्रम की अवज्ञा के परिणाम का सबसे ज्वलंत उदाहरण है, हमारे देश में व्याप्त शिक्षित वर्ग की बेकारी। हमारा शिक्षित युवा वर्ग शारीरिक श्रमपरक कार्य करने से परहेज करता है।
वह यह नहीं सोचता है कि शारीरिक श्रम परिणामतः कितना सुखदायी होती है। पसीने से सिंचित वृक्ष में लगने वाला फल कितना मधुर होता है। ‘दिन अस्त और मज़दूर मस्त’ इसका भेद जानने वाले महात्मा ईसा मसीह ने अपने अनुयायियों को यह परामर्श दिया था कि तुम केवल पसीने की कमाई खाओगे। पसीने टपकाने के बाद मन को संतोष और तन को सुख मिलता है, भूख भी लगती है और चैन की नींद भी आती है।
प्रश्नः 1.
उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक लिखिए।
उत्तर:
उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक है-श्रम की गरिमा।
प्रश्नः 2.
गांधी जी शारीरिक श्रम के समर्थक थे।-स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
गांधी जी अपना हर काम स्वयं करने पर बल देते थे। वे चाहते थे कि हर आश्रमवासी भी हर काम यहाँ तक कि सफ़ाई भी स्वयं करे। श्रम न करने वाला पाप करता है तथा पाप का अन्न खाता है। ऐसे विचार शारीरिक श्रम का समर्थन करते हैं।
प्रश्नः 3.
गांधी जी की श्रमसंबंधी नीतियों की उपेक्षा का हम क्या-क्या परिणाम भुगत रहे हैं?
उत्तर:
गांधी जी की श्रम संबंधी नीतियों की उपेक्षा के कारण आज न गरीबी कम हो रही है और न बेरोज़गारी पर नियंत्रण हो पाया है। बढ़ती आबादी पर नियंत्रण करना भी हमारे हाथ से निकल चुका है।
प्रश्नः 4.
शिक्षित बेरोज़गारी बढ़ने का मुख्य कारण क्या है? आज का युवावर्ग क्या भूल चुका है ?
उत्तर:
शिक्षित बेरोज़गारी बढ़ने का मुख्य कारण युवाओं द्वारा की गई श्रम की उपेक्षा है। यह वर्ग शारीरिक श्रमपरक कार्य करने से परहेज करने लगा है। युवा वर्ग यह भी भूल गया है कि शारीरिक श्रम सुखदायी होता है।
प्रश्नः 5.
ईसा मसीह किस भेद को जानते थे? उन्होंने अपने अनुयायियों को क्या परामर्श दिया? \
उत्तर:
‘दिन अस्त और मज़दूर मस्त’ इसका भेद ईसा मसीह जानते थे। उन्होंने अपने अनुयायियों को अपने पसीने की रोटी खाने का परामर्श दिया। इसके मूल में शारीरिक श्रम का संदेश छिपा था।
25. परिवर्तन प्रकृति का नियम है और परिवर्तन ही अटल सत्य है। अत: पर्यावरण में भी परिवर्तन हो रहा है, लेकिन वर्तमान समय में चिंता की बात यह है कि जो पर्यावरणीय परिवर्तन पहले एक शताब्दी में होते थे, अब उतने ही परिवर्तन एक दशक में होने लगे हैं। पर्यावरण परिवर्तन की इस तेज़ी का कारण है विस्फोटक ढंग से बढ़ती आबादी, वैज्ञानिक एवं तकनीकी उन्नति और प्रयोग तथा सभ्यता का विकास। पहला परिवर्तन है ओजोन की परत में कमी और विश्व के तापमान में वृद्धि। ये दोनों क्रियाएँ परस्पर संबंधित हैं। उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में सुपरसोनिक वायुयानों का ईजाद हुआ और वे ऊपरी आकाश में उड़ाए जाने लगे। उन वायुयानों के द्वारा निष्कासित पदार्थों में उपस्थित नाइट्रिक ऑक्साइड के द्वारा ओजोन परत का क्षय महसूस किया गया। यह ओजोन परत वायुमंडल के समताप मंडल या बाहरी घेरे में होती है।
प्रश्नः 1.
गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर:
गद्यांश का शीर्षक है-पर्यावरणीय परिवर्तन।
प्रश्नः 2.
पर्यावरणीय परिवर्तन चिंता का विषय क्यों है?
उत्तर:
पर्यावरणीय परिवर्तन चिंता का विषय इसलिए है, क्योंकि यह बहुत ही तेज़ गति से हो रहा है। जो परिवर्तन पहले एक-एक सौ साल में होते थे, आज वे बदलाव दस वर्षों में ही देखा जा रहा है।
प्रश्नः 3.
कौन-सी दो क्रियाएँ परस्पर संबद्ध है और कैसे?
उत्तर:
तेज़ गति से होने वाले पर्यावरणीय परिवर्तन के अनेकारण हैं। इनमें विस्फोटक ढंग से बढ़ती आबादी, वैज्ञानिक एवं तकनीकी उन्नति एवं प्रयोग तथा सभ्यता का विकास प्रमुख है।
प्रश्नः 4.
उन्नीसवीं सदी में कौन-सा कारण पर्यावरण के लिए घातक सिद्ध हो रहा है और क्यों?
उत्तर:
विश्व के तापमान में वृद्धि और ओजोन परत में कमी दोनों ही क्रियाएँ परस्पर संबद्ध हैं, क्योंकि ज्यों-ज्यों वैश्विक तापमान बढ़ता जा रहा है, त्यों-त्यों पर्यावरण का रक्षा कवच ओजोन परत में कमी आती जा रही है।
प्रश्नः 5.
ओज़ोन परत क्या है? यह किस तरह क्षति ग्रस्त हुई?
उत्तर:
वायुमंडल के समताप मंडल या बाहरी घेरे में स्थित वायु की मोटी परत को ओजोन परत कहा जाता है। सुपरसोनिक विमानों के धुएँ में उपस्थित नाइट्रिक आक्साइड से ओजोन परत को क्षति हुई।
अभ्यास प्रश्न
निम्नलिखित गद्यांशों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
1. वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत और शिशिर, इन सबका अपना-अपना महत्त्व है। इनमें से वसंत ऋतु की शोभा सबसे निराली है। वैसे तो वसंत ऋतु फाल्गुन मास से शुरू हो जाती है लेकिन असली महीने चैत्र और वैशाख हैं। वसंत ऋतु को ऋतुराज कहते हैं, क्योंकि यह ऋतु सबसे सुहावनी, अद्भुत, आकर्षक और मन में उमंग भर देने वाली है। इस ऋतु में पेड़-पौधों, वृक्षों, लताओं पर नए-नए पत्ते निकलते हैं, सुंदर-सुंदर फूल खिलते हैं। सचमुच वसंत की दुनिया की शोभा ही निराली होती है। वसंत ऋतु प्रकृति के लिए वरदान बनकर आती है।
बागों में, वाटिकाओं में, वनों में सर्वत्र नवजीवन आ जाता है। पृथ्वी पर कण-कण नए आनंद, उत्साह एवं संगीत का अनुभव करता है। ऐसा लगता है कि जैसे मूक वीणा ध्वनित हो उठी हो, बाँसुरी को होठों से लगाकर किसी ने मधुर तान छेड़ दी हो। शिशिर से ठिठुरे हुए वृक्ष मानो निद्रा से जाग उठे हों और प्रसन्नता से झूमने लगे हों। शाखाओं एवं पत्तों पर उत्साह नज़र आता है। कलियाँ अपना घूघट खोलकर अपने प्रेमी भँवरों से मिलने के लिए उतावली हो जाती हैं। चारों ओर रंग-बिरंगी तितलियों की अनोखी शोभा दिखाई देती है। प्रकृति में सर्वत्र यौवन के दर्शन होते हैं, सारा वातावरण सुवासित हो उठता है। चंपा, माधवी, गुलाब और चमेली आदि की सुंदरता मन को मोह लेती है। कोयल की ध्वनि कानों में मिश्री घोलती है।
प्रश्नः
1. वसंत को ‘ऋतुराज’ क्यों कहा जाता है?
2. वसंत प्रकृति के लिए वरदान बनकर आता है, कैसे?
3. शिशिर से ठिठुरे वृक्षों पर वसंत का क्या प्रभाव पड़ता है?
4. वसंत में वातावरण सुवासित हो उठता है, क्यों?
5. उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
2. कड़ी मेहनत और दिन-रात भट्टे में जलती आग के बाद जब भट्ठा खुलता था तो मज़दूर से लेकर मालिक तक की बेचैन साँसों को राहत मिलती थी। भट्टे में पकी ईंटों को बाहर निकालने का काम शुरू हो गया था। लाल-लाल पक्की ईंटों को देखकर सुकिया और मानो की खुशी की इंतहा नहीं थी। खासकर मानो तो ईंटों को उलट-पुलटकर देख रही थी। खुद के हाथ की पक्की ईंटों का रंग ही बदल गया था। उस दिन ईंटों को देखते-देखते ही मानो के मन में बिजली की तरह एक ख्याल कौंधा था। इस ख्याल के आते ही उसके भीतर जैसे एक साथ कई-कई भट्टे जल रहे थे। उसने सुकिया से पूछा था, “एक घर में कितनी ईंटें लग जाती हैं?”
प्रश्नः
1. भट्ठा मज़दूरों और मालिक को कब आराम मिलता है ?
2. सुकिया और मानो की खुशी का कारण क्या था?
3. उसके भीतर जैसे कई-कई भट्ठे जल रहे थे।-आशय स्पष्ट कीजिए।
4. मानो ने सुकिया से क्या पूछा और क्यों पूछा होगा?
5. ‘राहत’ और ‘इंतहा’ शब्दों का अर्थ लिखिए।
3. संसार के समस्त जीवधारियों में मनुष्य ही सृष्टिकर्ता की अनुपम रचना है और प्रसन्नता प्रभुप्रदत्त वरदानों में सर्वश्रेष्ठ उपहार है। प्रसन्नता अन्तःकरण की विहँसती सुकोमल और निश्छल भावनाओं की अभिव्यक्ति के साथ ही जीवन-पथ की असफलताओं को सफलताओं में परिवर्तित करने की अद्भुत सामर्थ्य से परिपूर्ण होती है। अनुभवी संतों और मनीषियों द्वारा प्रसन्नता को जीवन का शृंगार और मधुर भाव-भूमि पर खिला हुआ सुगंधित पुष्प और विवेक का प्रतीक माना गया है।
वस्तुतः प्रसन्नचित्तता व्यक्ति का ईश्वरीय गुण है, जिसकी प्राप्ति के लिए व्यक्ति को न तो किसी बड़े धार्मिक अनुष्ठान की आवश्यकता होती है और न ही किसी विशेषज्ञ की। प्रसन्नता एक मनोवृत्ति है, जिसे दैनिक अभ्यास में लाने से अंतर्मन में छिपी उदासी और कुंठाजनित आसुरी मनोविकार नष्ट हो जाते हैं और व्यक्ति का जीवन प्रसन्नता से परिपूर्ण होकर आनंद से भर जाता है। प्रसन्नता चुंबकीय शक्ति संपन्न एक विशिष्ट गुण है, जो दूसरों को स्नेह, सहयोग, अपनी ओर सहज में सुलभ कराने में अत्यंत सहायक होता
है।
प्रश्नः
1. सृष्टिकर्ता की अनुपम रचना एवं सर्वश्रेष्ठ उपहार किसे कहा गया है ?
2. यह सर्वश्रेष्ठ उपहार मनुष्य के लिए किस प्रकार लाभदायक है?
3. ईश्वरीय गुण किसे कहा गया है और क्यों?
4. प्रसन्नता चुंबकीय शक्ति संपन्न एक विशिष्ट गुण है, इससे आप कहाँ तक सहमत हैं?
5. ‘निश्छल’ और ‘अत्यंत’ शब्दों का संधि-विच्छेद कीजिए।
4. द्वितीय महायुद्ध की समाप्ति के पश्चात् भी स्वतंत्रता-प्राप्ति की आशा दृष्टिगोचर नहीं हुई और आज़ाद हिंद फौज़ के अनेक नेताओं पर लाल किले में सुनवाई हुई और उन्हें फाँसी की सजा सुनाई गई। इससे सुप्त विद्रोहाग्नि अचानक भडक उठी। विद्यार्थियों ने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अंतिम युद्ध का संकल्प लिया। उधर मुंबई में भारत के नौसैनिकों ने भी विद्रोह का बिगुल फूंक दिया। फलस्वरूप लॉर्ड क्रिप्स के नेतृत्व में एक मिशन भारतीय नेताओं के साथ समझौते के लिए आया किंतु असफल रहा। इसके बाद देश के राज्यों को क, ख, ग तीन भागों में बाँट दिया गया और असम को पूर्वी बंगाल का एक अंग बना दिया था, जिसे पूर्वी पाकिस्तान बनाया जाना था। इसके विरोध में संपूर्ण असम की जनता ने आंदोलन छेड़ दिया।
अंग्रेज़ सरकार ने असम को ‘ग’ मंडल के साथ जोड़ दिया। लोकप्रिय बोरदोलोई जी ने असम को भारत के साथ रखने के लिए समग्र भारत में घूम-घूमकर जनता का समर्थन प्राप्त किया। असमवासी अडिग चट्टान के समान अड़ गए और असम को पाकिस्तान में जाने से बचा लिया। बोरदोलोई जी का यह कार्य अविस्मरणीय है। उनके अथक परिश्रम, त्याग और निष्ठा के फलस्वरूप शेष भारत के साथ असम भी 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र हो गया।
प्रश्नः
1. लाल किले में सुनवाई के क्या परिणाम रहे?
2. विद्यार्थियों और नौसैनिकों ने अपना असंतोष कैसे प्रकट किया?
3. असम की जनता ने आंदोलन क्यों छेड़ दिया?
4. बोरदोलोई जी के किस कार्य को अविस्मरणीय कहा गया है?
5. ‘अथक’ और ‘दृष्टिगोचर’ शब्दों का अर्थ लिखिए।
5. झूरी काछी के दोनों बैलों के नाम थे-हीरा और मोती। दोनों पछाईं जाति के थे-देखने में सुंदर, काम में चौकस, डील में ऊँचे। बहुत दिनों साथ रहते-रहते दोनों में भाईचारा हो गया था। दोनों आमने-सामने या आस-पास बैठे हुए एक-दूसरे से मूक भाषा में विचार-विनिमय करते थे। एक, दूसरे के मन की बात कैसे समझ जाता था, हम नहीं कह सकते। अवश्य ही उनमें कोई ऐसी शक्ति थी, जिससे जीवों में श्रेष्ठता का दावा करने वाला मनुष्य वंचित है। दोनों एक-दूसरे को चाटकर और सूंघकर अपना प्रेम प्रकट करते, कभी-कभी दोनों सींग भी मिला लिया करते थे-विग्रह के नाते से नहीं, केवल विनोद के भाव से, आत्मीयता के भाव से, जैसे दोस्तों में घनिष्ठता होते ही धौल-धप्पा होने लगता है।
इसके बिना दोस्ती कुछ फुसफुसी, कुछ हल्की-सी रहती है, जिस पर ज़्यादा विश्वास नहीं किया जा सकता। जिस वक्त ये दोनों बैल हर या गाड़ी में जोत दिए जाते और गरदन हिला-हिलाकर चलते, उस वक्त हर एक की यही चेष्टा होती थी कि ज़्यादा से ज्यादा बोझ मेरी ही गरदन पर रहे। दिन-भर के बाद दोपहर या संध्या को दोनों खुलते, तो एक-दूसरे को चाट-चूटकर अपनी थकान मिटा लिया करते। नाँद में खली-भूसा पड़ जाने के बाद दोनों साथ उठते, साथ नाँद में मुँह डालते और साथ ही बैठते थे।
प्रश्नः
1. दोस्ती हलकी या फुसफुसी कब मानी जाती है?
2. हीरा मोती कौन थे? उनमें भाईचारा किस तरह उत्पन्न हो गया?
3. खुद को जीवों में श्रेष्ठ कौन समझता है? वह किस शक्ति से वंचित समझता है?
4. ‘सींग मिला लेने’ का तात्पर्य क्या है? हीरा-मोती ऐसा किस भाव से करते थे?
5. हीरा-मोती में गहरी मित्रता थी, ऐसा उनके किन कार्यों से प्रकट होता है?
6. अंततः इस संस्कृति के फैलाव का परिणाम क्या होगा? यह गंभीर चिंता का विषय है। हमारे सीमित संसाधनों का घोर अपव्यय हो रहा है। जीवन की गुणवत्ता आलू के चिप्स से नहीं सुधरती। न बहुविज्ञापित शीतल पेयों से। भले ही वे अंतर्राष्ट्रीय हों, पीज़ा और बर्गर कितने ही आधुनिक हों, हैं वे कूड़ा-खाद्य। समाज में वर्गों की दूरी बढ़ रही है, सामाजिक सरोकारों में कमी आ रही है।
जीवन स्तर का यह बढ़ता अंतर आक्रोश और अशांति को जन्म दे रहा है। जैसे-जैसे दिखावे की यह संस्कृति फैलेगी, सामाजिक अशांति भी बढ़ेगी। हमारी सांस्कृतिक अस्मिता का ह्रास तो हो ही रहा है, हम लक्ष्य-भ्रम से भी पीड़ित हैं। विकास के विराट उद्देश्य पीछे हट रहे हैं, हम झूठी तुष्टि के तात्कालिक लक्ष्यों का पीछा कर रहे हैं। मर्यादाएँ टूट रही हैं, नैतिक मानदंड ढीले पड़ रहे हैं। व्यक्ति-केंद्रिकता बढ़ रही है, स्वार्थ-परमार्थ पर हावी हो रहा है। भोग की आकांक्षाएँ आसमान को छू रही हैं। किस बिंदु पर रुकेगी यह दौड़?
प्रश्नः
1. आज किन खाद्य पदार्थों को भारत में अधिक महत्त्व दिया जा रहा है? इससे जीवन की गुणवत्ता पर क्या असर हुआ है?
2. उपभोक्तावादी संस्कृति भारतीय समाज के लिए अच्छी क्यों नहीं है?
3. स्वार्थ परमार्थ पर किस तरह हावी हो रहा है? इसका दुष्परिणाम भी लिखिए।
4. दिखावे की संस्कृति हमारे सामाजिक ताने-बाने को किस तरह छिन्न-भिन्न कर रही है?
5. ह्रास, सरोकार-शब्दों के अर्थ लिखिए।
7. भारत का दलित समाज शताब्दियों से विश्व का सर्वाधिक प्रताड़ित, पीड़ित एवं शोषित समाज रहा है। दुनिया के इतिहास में किसी भी समुदाय ने इतना कष्ट, दुख, दारिद्रय नहीं झेला, जितना हमारे दलित समाज ने। फिर भी बाबा साहब ने समग्र समाज की बात सोची, भारत राष्ट्र की बात सोची। राजनीति तो सामाजिक लक्ष्य का हथियार है। यह सोच हमारी राजनीति को अर्थवत्ता देती है। यदि हम स्वाभाविक बदलाव के बाबा साहब अंबेडकर के उद्देश्यों को अपना सकें, तो उनके प्रयासों को एक सार्थकता मिलेगी। आजादी के बाद हमारे आंदोलनकारी नेताओं ने चाहे वे जे.पी. हों या लोहिया, उन्होंने सामाजिक समस्या का साक्षात्कार तो किया, लेकिन अपने आंदोलन के लिए सामाजिक लक्ष्य निर्धारित नहीं किए।
आज भी कुछ आंदोलनकारी राष्ट्रवादी हैं एवं राष्ट्रीयकरण की बात करते हैं तो उनके सामने अंबेडकर के समान सामाजिक समस्याओं से सीधा टकराने के अलावा कोई दूसरा मार्ग नहीं है। सामाजिक आज़ादी के इस मार्ग पर चलने वालों के लिए चेतावनी का एक बोर्ड ज़रूर लगा है कि यहाँ सफलता के शॉर्टकट नहीं हैं और हो सकता है कि सफलता से पहले असफलताओं के लंबे दौर चलें। जे.पी. का आंदोलन सत्ता के चरित्र परिवर्तन का प्रयास था, किंतु सामाजिक लक्ष्यों के अभाव में इस आंदोलन के प्रतिफल स्थायी नहीं हुए।
ये सारे प्रयास उस सामाजिक सशक्तीकरण के अभियान का लक्ष्य लेकर चलने चाहिए थे, जिसके लिए बाबा साहब ने अपना जीवन समर्पित कर दिया। हमारे सामने एक स्वर्णिम अवसर था कि अन्ना हजारे के आंदोलन को निरुद्देश्य राजनीतिक दिशा से मोड़कर सामाजिक आज़ादी के विस्तृत राष्ट्रीय एजेंडे की ओर उन्मुख करने का सार्थक प्रयास करते।
प्रश्नः
1. शताब्दियों से भारतीय दलित समाज की क्या स्थिति थी?
2. हमारे प्रयासों को कब सार्थकता मिल सकती है?
3. अंबेडकर का समाज के प्रति क्या योगदान था?
4. जे.पी. के आंदोलन के क्या परिणाम निकले?
5. हमारे सामने एक स्वर्णिम अवसर क्या था?
8. वह नेपाल से तिब्बत जाने का मुख्य रास्ता है। फरी-कलिङ्पोंङ् का रास्ता जब नहीं खुला था, तो नेपाल ही नहीं हिंदुस्तान की भी चीजें इसी रास्ते तिब्बत जाया करती थीं। यह व्यापारिक ही नहीं सैनिक रास्ता भी था, इसीलिए जगह-जगह फौज़ी चौकियाँ और किले बने हुए हैं, जिनमें कभी चीनी पलटन रहा करती थी। आजकल बहुत से फौज़ी मकान गिर चुके हैं। दुर्ग के किसी भाग में जहाँ किसानों ने अपना बसेरा बना लिया है, वहाँ घर कुछ आबाद दिखाई पड़ते हैं। ऐसा ही परित्यक्त एक चीनी किला था। हम वहाँ चाय पीने को ठहरे। तिब्बत में यात्रियों के लिए बहुत-सी तकलीफें भी हैं और कुछ आराम की बातें भी। वहाँ जाति-पाँति, छुआछूत का सवाल ही नहीं है और न औरतें परदा ही करती हैं।
बहत निम्न श्रेणी के भिखमंगों को लोग चोरी के डर से घर के भीतर नहीं आने देते, तो आप बिलकुल घर के भीतर चले जा सकते हैं। चाहे आप बिल्कुल अपरिचित हों, तब भी घर की बहू या सासु माँ को अपनी झोली में से चाय दे सकते हैं। वह आपके लिए उसे पका देगी। मक्खन और सोडा-नमक दे दीजिए, वह चाय चोडी में कूटकर उसे दूधवाली चाय के रंग की बनाकर मिट्टी के टोटीदार बरतन (खोटी) में रखकर आपको दे देगी। यदि बैठक की जगह चूल्हे से दूर है और आपको डर है कि सारा मक्खन आपकी चाय में नहीं पड़ेगा, तो आप खुद जाकर चोडी में चाय मथकर ला सकते हैं।
प्रश्नः
1. लेखक चीनी किले के पास क्यों रुका था?
2. लेखक नेपाल से तिब्बत के मुख्य रास्ते जा रहा था। ऐसा किन साक्ष्यों के आधार पर कह सकते हैं।
3. उस रास्ते के आसपास लेखक को क्या-क्या बदलाव नज़र आए?
4. तिब्बत में यात्रियों के लिए कौन-कौन-सी सुविधाएँ हैं ? किन्हीं दो का उल्लेख कीजिए।
5. ‘तिब्बत में भी अतिथि देवो भवः’ की संस्कृति है-स्पष्ट कीजिए।
9. अंधेरा कहाँ है? यह बात बड़ी सरल है। अगर आप अपने जीवन में उजाला चाहते हैं, तो इस बात को समझना होगा कि अँधेरा कहाँ है ? अँधेरा ठीक प्रकाश के पास है। जब प्रकाश आएगा तो अँधेरा जाएगा। आजकल नकली मोमबत्तियाँ भी मिलती हैं, जो बैटरी से जलती हैं। उनमें एक छोटा बल्ब होता है और उनकी सुगंध भी अच्छी होती है। जब मैंने उन मोमबत्तियों को पहली बार देखा तो वह तौलिये के पास पड़ी हुई थीं।
मैंने कहा-‘यह तो अच्छी बात नहीं है। तौलिए में आग लग जाएगी।’ मैंने मोमबत्तियों को तौलिए से थोड़ा अलग कर दिया। जब मैं उनके पास गया तो महसूस किया कि उन मोमबत्तियों में न आग है न गरमी। एक मोमबत्ती उठाकर देखा तो सोचने लगा, अरे, यह तो बड़ी अच्छी मोमबत्ती है। इसमें मोमबत्ती के सारे गुण हैं। यह प्रकाश भी देती है। इससे किसी चीज़ को आग भी नहीं लगेगी। इसकी खुशबू भी अच्छी है।
रात को अचानक ख्याल आया लेकिन यह मोमबत्ती दूसरी मोमबत्ती को जला नहीं सकती।’ नुक्स पकड़ में आ गया। यह प्रकाश दे सकती है, पर बुझे हुए दीपक को जला नहीं सकती। उसको जलाने के लिए जलता हुआ दीया चाहिए, जलती हुई मोमबत्ती चाहिए। ठीक उसी प्रकार गुरु भी आपके हाथ में ज्ञान का दीया रखते हैं। उसे जलाते हैं, ताकि आपको जीवन में ठोकरें न खानी पड़ें। ठोकरें खाने का मतलब है कि रास्ते में पत्थर पड़े हुए हैं।
प्रश्नः
1. जीवन में उजाला चाहने के लिए क्या समझना होगा?
2. बैट्री से जलने वाली मोमबत्तियाँ लेखक को क्यों अच्छी लगीं?
3. लेखक ने मोमबत्ती में कौन-सा दोष पकड लिया?
4. बुझा दीप जलाने में मोमबत्तियाँ असमर्थ क्यों थीं? इस दीप को किस तरह जलाया जा सकता है?
5. गुरु हमारे हाथ पर कौन-सा दीप रखता है और क्यों?
10. बूढे सियार ने भेड़ों को रोककर कहा, भाइयो और बहनो! अब भय मत करो। भेडिया राजा संत हो गए हैं। उन्होंने हिंसा बिल्कुल छोड़ दी है। उनका हृदय परिवर्तन हो गया है। वे आज सात दिनों से घास खा रहे हैं। रात-दिन भगवान के भजन व परोपकार में लगे हैं। उन्होंने अपना जीवन जीव-मात्र की सेवा में अर्पित कर दिया है। अब वे किसी का दिल नहीं दखाते, किसी का रोम तक नहीं छूते।
भेड़ों से उन्हें विशेष प्रेम है। इस जाति ने जो कष्ट सहे हैं, उनकी याद करके कभी-कभी भेड़िया संत की आँखों से आँसू आ जाते हैं। उनकी अपनी भेड़िया जाति ने जो अत्याचार आप पर किए हैं, उनके कारण संत का माथा लज्जा से जो झुका है, सो झुका ही हुआ है, परंतु अब वे शेष जीवन आपकी सेवा में लगाकर प्रायश्चित करेंगे। आज सवेरे की बात है कि एक मासूम भेड़ के बच्चे के पाँव में काँटा लग गया तो भेड़िया संत ने उसे दाँतों से निकाला; पर जब वह बेचारा कष्ट में चल बसा तो भेड़िया संत ने सम्मानपूर्वक उसकी अंत्येष्टि क्रिया की। उनके घर के पास हड्डियों का जो ढेर आप देख रहे हैं, वह उसी का है। अब वे सर्वस्व त्याग चुके हैं। अब आप उनसे भय मत करो।
प्रश्नः
1. ‘संत होने’ का आशय क्या है ? ऐसा कौन हो गया था?
2. हृदय परिवर्तन के बाद भेड़िया ‘संत’ के कार्य व्यवहार में क्या-क्या बदलाव आ गए थे?
3. भेड़ों को मूर्ख बनाने का प्रयास किस तरह किया जा रहा था?
4. हड्डियों के ढेर के बारे में सियार भेड़ों को जो बता रहा था, उसका उद्देश्य क्या था?
5. परोपकार, अत्याचार में संधि-विच्छेद कीजिए।
11.मनुष्य ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट कृति है। शुभ तथा अशुभ संस्कारों की प्राप्ति हमें अपने जन्म से पहले ही माता के गर्भधारण करने के समय से प्रारंभ हो जाती है। जन्म लेने पर बच्चा ज्यों-ज्यों बड़ा होता जाता है, त्यों-त्यों उस पर उसके माता-पिता परिवार के अन्य सदस्यों, अड़ोस-पड़ोस के वातावरण, अपने मित्रों, पुस्तकों के ज्ञान आदि का प्रभाव पड़ता है। जीवन के व्यवहार में उसे जिस किसी से काम पड़ता है वह उसके गुण-दोषों से अछूता नहीं रहता। इस प्रकार जीवन के कई पड़ावों पर ये प्रभाव उसके संस्कार बनते जाते हैं। स्वभाव से ही मनुष्य ऊँचा उठना और आगे बढ़ना चाहता है। यही मनुष्य और पशु में अंतर है। पशु जहाँ के तहाँ पड़े हैं। मनुष्य अपने संस्कारों की पहचान कर विकास-मार्ग पर अग्रसर हो रहा है।
हमारे शुभ और उच्च संस्कार ही हमारी मानवता की पहचान हैं। यद्यपि हमारे शुभ संकल्प पूर्वजन्मों के कर्मों तथा इस जन्म की अच्छी संगति से जुड़े हुए हैं, फिर भी उन्हें पाने के लिए हमें अपना जीवन, स्वार्थ-त्यागकर नि:स्वार्थ भाव से बिताना होगा। आलस्य, प्रमाद छोड़ हमें परिश्रमी बनना होगा। भौतिक अंधानुकरण को छोड़, उच्च लक्ष्य की प्राप्ति की ओर निरंतर अग्रसर होते रहना होगा जिससे हम आत्मोन्नति कर अपना और अपने देश का कल्याण कर विश्व को भी कुछ दे सकें।
प्रश्नः
1. हमारी मानवता की पहचान क्या है?
2. बालक में संस्कारों का आरंभ कब से होने लगता है ? ये संस्कार किन-किन से प्रभावित होते हैं?
3. संस्कार के संबंध में मनुष्य और पशु में क्या अंतर है?
4. शुभ संकल्प पाने के लिए मनुष्य को क्या करना चाहिए?
5. मनुष्य को ‘आत्मोन्नति’ तथा देशहित के लिए क्या करना चाहिए?